बहती नाक, खिसकती निक्कर

लगता है ये हफ़्ता, बचपन की यादें सप्ताह होकर रहेगा। बचपन की यादों मे जब भी गोते लगाओ, काफी मजा आता है। इसी बहाने वर्तमान की परेशानियों से कंही दूर हँसता खिलखिलाता बचपन याद करके हम तरोताजा हो उठते है। सच है कितना अच्छा था अपना बचपन। सभी लोगों की बचपन की कुछ खट्टी मीठी यादें होती है। आइए फिर से डूबते है उन कुछ बचपन की शरारतों भरी यादों में।

बचपन मे हमारी एक खास पहचान हुआ करती थी। बहती नाक और खिसकती निक्कर। नाक का क्या था कि जुकाम बहुत रहता था, ऐसा नही कि दवाई नही खाते थे, लेकिन वो क्या है कि दवाई के साथ साथ अगर आप भगवानदास का मक्कू (बर्फ़वाला गोला) खाओ, तो असर नही करता था। सुबह सवेरे हमारे दो ही काम हुआ करते थे, शिवकुमार की गरमागरम जलेबी और भगवानदास का मक्कू। आप कहेंगे इत्ते पैसे कहाँ से आते थे, नही जी, ये सब फ्री का जुगाड़ होता था।

शिवकुमार ( एक डील के तहत) हमको जलेबी इसलिए खिलाते थे कि ताकि हम उसके लड़के को मोहल्ले मे खेलने के लिए ना ले जाएं। और रही बात भगवानदास की। हम सभी टोली बनाकर उसकी दुकान पर खड़े हो जाते और खूब होहल्ला करते। इससे उसकी दुकानदारी खराब होती। झक मारकर भगवानदास ने भी डील की, अकेले हमको रोजाना एक प्याली फ्री मे मक्कू देगा। दोनो के लिए विन विन सिचुवेशन थी, भगवानदास पूरी टोली को फ्री मे मक्कू देने से बच गया और हमको फ्री मे मक्कू मिला, ये अलग बात है कि धीरु और टिल्लू हमारी मक्कू की प्याली को गिराने की फिराक मे लगे रहते थे। इस गरमागरम जलेबी और मक्कू के काम्बीनेशन ने हमे ढेर सारा जुकाम दिया। हमने भी इसको अपने तक नही रखा, सभी मे समान रुप से फैलाया। दोस्ती बराबरी मे होती है, ये क्या कि एक दोस्त को जुकाम और दूसरा साफ सुथरा घूमता रहे।

एक और शौंक हुआ करता था हम लोगों का। गोपाल टाकीज (अब शीशमहल, या बन्द हो गयी है शायद) मे फ्री में फिल्म देखने का। पहले पहले तो हम एक्जिट गेट के पास कान लगाकर, फिल्म की पूरी पूरी कहानी सुनते थे, दिखता तो कुछ था नही, लेकिन आवाज सब साफ साफ सुनाई देती थी। उसके बाद हम इसको ढंग से रट लेते और पूरे मोहल्ले मे बात फैला दी जाती कि हम ये वाली फिल्म देख आए। सभी संगी साथी पूरे फिल्मी इफेक्ट के साथ फिल्म की स्टोरी सुनते। इसके लिए बाकायदा डील होती, कैश, काइंड या वस्तु विनिमय सब चलता।

कहानी सुनाने मे भी अच्छी खासी महारत थी। कास्टिंग से लेकर राष्ट्रीय गान (पहले फिल्मों के आखिरी मे राष्ट्रीय गान हुआ करता था) तक हम पूरी कहानी ऐसे सुनाने मानो आंखो देखा हाल। फिल्मों के संवाद तो पहले से ही रटे हुए रहते(गेट से कान लगाकर सुनने के कारण) , अलबत्ता हम हीरो हिरोइन और सीन की लोकेशन मे कल्पनाशील हो जाते थे। हीरो ने कैसे कपड़े पहने थे, उनके बालो का स्टाइल कैसा था, (उम्र कम होने के कारण हीरोइन पर शारीरीक टीका टिप्पणी से बचा जाता), सीन मे बादल, फूल, पहाड़ और झरने कहाँ कहाँ पर फिल्माया गया, इत्यादि इत्यादि सब विस्तार से बताया जाता। इन सभी मे इत्ती फेंका फांकी चलती कि कभी कभी बहुत ओवर हो जाता। लेकिन हम डायरेक्टर प्रोडयूसर को लानते भेजते हुए, सारे इल्जाम उनके सर पर डाल देते। एक बार एक लड़के ने पैसे देने से मना कर दिया, बोला फिल्मों मे गाने भी होते है, वो भी सुनाओ तभी पैसे देंगे। मुझे याद है धीरु ने उसको सूत दिया था। लेकिन लड़के का प्वाइंट वैलिड था, हम तीन रुपए(2.90 पैसे) की टिकट वाली सिनेमा की स्टोरी, पचीस पैसे मे सुनाते थे, गाने सुनाना तो जरुरी था। सो भाई, अगली बार से गोपाल टाकीज के बाहर गानो की चौपतिया भी खरीदी गयी और रट रट कर बेसुरे स्वर में गाने सुनाए गए। एक दो बार बेसुरा सुनने के बाद लोगों ने गाने सुनने की फरमाइश बन्द कर दी।

अब इस कहानी सुनाने से जो पैसे इकट्ठे होते, उससे हम फिल्म देखते। फिल्म देखने की कहानी भी काफी अजीब है। हम लोग अक्सर इंटरवल के आसपास सिनेमा हॉल पर पहुँच जाते, कई लोग इंटरवल मे फिल्म छोड़कर चले जाते थे, उनसे हम फ्री मे कटिंग टिकट लेकर इंटरवल के बाद की फिल्म देखते। रही बात इंटरवल से पहले की, उसके लिए हम लोगों ने एक टार्चवाले मामू को सैट कर रखा था। वो हमको कभी इंटरवल के पहले, कभी बाद मे फिल्म दिखा देता था। लेकिन ये अक्सर घिसी पिटी सिनेमा (जब हॉल में सीटें खाली हों) के लिए ही वैलिड था।

कई फिल्मे एडल्ट हुआ करती थी, चेतना, बॉबी, सत्यम शिवम सुन्दरम और भी कई फिल्मे, हमको सिनेमा हॉल के अंदर घुसने नही दिया जाता। उस सूरत मे हमको मजबूरन अपनी बड़ी बहनों को, पैसे देकर, फिल्म की कहानी सुननी पड़ती। जिसमे हम बाद मे थोड़े मसाले डालकर अपने स्टोरी सुनाओ बिजिनेस मे इस्तेमाल कर लेते। एक बार एक लड़के ने पूछा एडल्ट फिल्म कैसे देखी, उसके लिए भी ढेरे सारी गोलीबाजी जैसे नकली मूँछ, बुरका वगैरहा जैसी झाम स्टोरी तैयार थी। कुछ भी कहो इस स्टोरी बिजिनेस मे अच्छा खासा कम चल रहा था। ये तो मार पड़े मेरे पार्टनर धीरु को जिसने अपोजिशन मे स्टोरी सुनाने की दुकान खोल ली। पचीस पैसे से स्टोरी सुनाने का रेट दस पैसे पर आ गया। धीरे धीरे ये धंधा भी खत्म हो गया। ये तो रही हमारी बचपन की फिल्मी स्टोरी सुनाने की कहानी, आपकी भी कोई कहानी जरुर रही होगी। सुनाना मत भूलिएगा। हम इंतजार कर रहे है। तो फिर आते रहिए पढते रहिए आपका पसंदीदा ब्लॉग।

16 Responses to “बहती नाक, खिसकती निक्कर”

  1. बचपन की बातों को कभी भुलाया नही जा सकता,
    आप ने बड़े ही रोचक अंदाज़ मे उन पलों को पिरोया हैं,

    बस ऐसे ही याद दिलाते रहिए,हमारे वो बीते अनमोल पल.
    बहुत बहुत धन्यवाद आपको,

  2. जीतू भाई, फिलम तो फोकट में नहीं देखी। उस के लिए तो बाकायदे मेहनत वाला धन्धा करना पड़ा। रियाज जिन्दगी में बहुत काम आया होगा?

  3. Miss Rachna Singh on जून 25th, 2009 at 12:01 pm

    बचपन की यादें हैं या अंदर छुपा बच्चा बाहर आने
    को बेताब हैं , जो भी हैं आप ने पुनेह लिखना
    शुरू किया ये सब से बढिया हैं

  4. सार: सफल ब्लॉगर बनने के लिए बचपन से ही कहानीबाजी की प्रेक्टिस करनी पड़ती है. 🙂

  5. वैरी इंट्रेस्टिंग ….

    वैसे हमने भी कॉमिक्स पढने के लिए बहुत जुगाड़ लगाये और छिप कर ढेरों कोमिक्से लाते…जिनमे तौसी, अंगारा , जम्बो , नागराज , ध्रुव , बांकेलाल , तिलिस्म्देव , लम्बू मोटू , राम रहीम मुख्या थे …डोगा के आते आते कॉमिक्स का असर कम होने लगा उसकी जगह वीडियो गमेस ने लेनी सुरु कर दी थी….

    अब वो जमाना गया… आज के बच्चों में न तो कॉमिक्सों का शौक है न ही उन खेलों का जो हम खेला करते थे…

    काश वो बचपन फिर लौट के आता ……

    आपने तो काफी भावुक कर दिया…..

  6. मजेदार पूरी कहानी.. और कई आईडिया मुफ्त का माल उडाने का..

  7. हा हा ! फेंका-फांकी जम के कि है आपने 🙂 मस्त, हम तो फोकट में ही सब सुन ले रहे हैं 🙂

  8. खींचे रहो माहौल और निक्कर.

  9. ढीली निक्कर तो उन बच्चों को पहनाते है जो थोड़े बड़े होकर भी अंगूठा चुसते है ताकि निक्कर के चक्कर में अंगूठा मुंह में ना जाये कहीं ये आप के …

  10. गजब ही लिखा हे जी आपने, बोले तो मजा आ गया

  11. नितिन जी, अब अंगूठा चुसने वाली बात तो बचपन की यादें सप्ताह की अगली पोस्ट होगी ना, सब कुछ थोडे ही एक बार मे लिख मारेंगें। इंतजार किया जाये।

  12. बढ़िया है !

  13. वाह जी बचपन लौटा ही लिया आखिर

  14. फिल्म की कहानी सुनने के लिये बड़ा उत्साह रहता था और घंटों कब बीत जाते थे पता ही नहीं चलता था । कहानी सुन कर मन में सारे दृश्यों की कल्पना करना, फिल्म देखने से अधिक सुखदायी था । अब के बच्चों की कल्पनाशीलता को टीवी और एकता कपूर की नज़र लग गयी ।

  15. इसको कहते हैं कनपुरिया इस्टाइल 😉
    .-= Vaibhav Dixit´s last blog ..बड़े भाई का शुभ-विवाह =-.

  16. 😀