फाल्गुन आयो रे….भाग दो

होली का हुड़दंग
गतांक से आगे

होली वाले दिन सुबह सुबह ही लाउडस्पीकर पूरे वाल्यूम मे होली के घिसे पिटे गीत बजाता, हम लोग गेरूवा रंग घोलते और हर आने जाने वाले पर रंग डालते, मजाल है कोई बिना पुते निकल जाये हमारी गली से. ना जाने कितनी टोलियाँ आती जाती,

कभी कभी झगड़ा भी होता, कभी हम पिटते कभी टोली वाले, लेकिन मजा बहुत आता था, अगर इसको कांग्रेस और राजद की नजर से देखा जाय तो ये “फ्रेन्डली फाइट” होती

सारे मिलकर डान्स करते, खूब मस्ती करते, कभी कभी झगड़ा भी होता, कभी हम पिटते कभी टोली वाले, लेकिन मजा बहुत आता था, अगर इसको कांग्रेस और राजद की नजर से देखा जाय तो ये “फ्रेन्डली फाइट” होती. हर होली मे एक रेग्यूलर मामला जरूर होता वो ये कि चमचम रेडियोज वाले के साथ पंगा जरूर होता, क्योंकि जो गाने की फरमाइश होती वो ना मिलता तो सारी गालियाँ उसी के मत्थे जाती,सारे आने जाने वालो के लिये वानर सेना ने गुजिया और नमकीन का प्रबन्ध भी किया रहता, ताकि पुतने के बाद किसी को भी नाराजगी ना हो. सारे लोग रंगे पुते हाथो से खाते, काहे की सफाई और काहे का हाइजीन.कोई चिन्ता नही.

बीच बीच मे पुलिस की जीप भी मोहल्ले से गुजरती, तब हम लोग गुब्बारे अन्दर कर लेते थे, बाकी रंगाई पुताई जोरो शोरों से चालू रहती.कई बार तो पुलिस की जीप पर भी हम लोगो ने रंग डाला, पुलिस वाले भी जानते थे, अगर जीप से नीचे उतरे तो बिना पुते नही जायेंगे, इसलिये दूर से ही डन्डा दिखाते रहते.लेकिन कभी जीप से नीचे ना उतरते, बस बारह बजे का डर जरूर दिखाते.हम लोग कानून का पालन करते हुए दोपहर ठीक बारह बजे सड़क पर रंग खेलना बन्द कर देते. अब बारी होती थी घरो मे रंग खेलने की. सो जो बन्दा सबसे ज्यादा चन्दा देता, सबसे पहले उसके घर रंग खेलने जाया जाता. सभी लोग सभी के घर रंग खेलने नही जाते लेकिन हमारा अपना अनुभव है कि जिस घर मे जवान लड़कियाँ होती उस घर मे रंग खेलने जाने वालो की तो लाइन ही लग जाती थी, दूर दूर से लोग हमारी टोली मे शामिल हो जाते थे.खैर होली के दिन सब माफ होता है.इसी बीच काफी लोग अपनी अपनी सैटिंग वालो के यहाँ भी पहुँच जाते और मौका देखकर अपनी माशूका के साथ होली खेल लेते.लेकिन हमारी वानर सेना सभी मामलो पर विशेष नजर रखती,ताकि स्थिति को काबू से बाहर होने से बचाया जा सके. वैसे भी जब माशूक और माशूका राजी तो हम कौन होते है पंगा लेने वाले, फिर भी मोहल्ले की इज्जत का सवाल था, और सेन्सरशिप भी तो कोई चीज होती है.
होली का हुड़दंग
खैर जनाब होली वाला दिन भी आया, और नेताजी भी अपने सफेद चक कपड़ों मे आये. आप किसी गफलत मे ना रहे, नेताजी सफेद चक कुर्ता पजामा खास होली के लिये बांग्लादेशी मार्केट से लाते थे.इस बार हमने नेताजी के लिये विशेष प्लान बनाया था. नेताजी ने भाषण देना शुरु किया, जो कि हमेशा की तरह पकाऊ था, लेकिन किसी को भी भाषण से मतलब नही था, सबकी नजर थी, तो पकोड़ों की प्लेट और नेताजी के मुंह पर, नेताजी को भाषण के बीच बीच मे पकोड़ों की प्लेट बढायी जाती, और नेताजी आदत के मुताबिक पकौड़े खाते जाते, सबकी इच्छा थी कि उनको नशा जल्द से जल्द चढे,ताकि अगला मनोरंजक प्रोग्राम शुरु हो सके. हमे ज्यादा इन्तजार नही करना पड़ा,पन्द्रह मिनट के बाद नेताजी पूरे रंग मे आ गये, और मामला भाषण से निकलता हुआ, चुटकुलों तक जा पहुँचा और फिर वो अपनी पार्टी और दूसरे नेताओ को चुटकुलों मे घसीटने लगे, धीरे धीरे उनकी भाषा मे कानपुरियापन यानि गाली गलौच झलकने लगा, बस यही सिग्नल था हमारे लिये,हम लोगो ने मोहल्ले के बुजुर्गो के द्वारा नेताजी को रंगवा पुतवा दिया. और नेताजी तो बस क्या दिख रहे थे, एक तो भांग ना नशा और ऊपर से संगीत की मस्ती, अब तो नेताजी के पांव रूके ना रूक रहे थे. तो हमने भी उनको मैदान मे डान्स करने के लिये उतार दिया.पहले पहल तो होली के शराफत वाले गानो से मामला शुरु हुआ, धीरे धीरे हम लोगो की शरारत बढने लगी और होली वाले गानो से मामला मुजरे की तरफ बढने लगा. किसी वानर ने नेताजी के गले मे दुपट्टा भी ओड़ा दिया, जो सरदारजी दुपट्टा सेन्टर के द्वारा प्रायोजित था.

नेताजी, नेताजी ना रहे, उमराव जान बन गये, लोग घेरा बनाकर मुजरे का मजा लूटने लगे

बस फिर क्या था, नेताजी, नेताजी ना रहे, उमराव जान बन गये, लोग घेरा बनाकर मुजरे का मजा लूटने लगे, जहाँ हमे लगता कि नेताजी का नशा कुछ टूट रहा है, हम लोग पकौड़े और मिठाई की प्लेट उनके सामने बढा देते थे, और नशा बरकरार रखते थे. नेताजी, पाकीजा, उमराव जान से होते हुए, हैलन के कैबरे
तक पहुँच चुके थे.धीरे धीरे नेताजी सड़क पर लोटने लगे और थिरक थिरक कर नाचने लगे. नेताजी तो नशे मे कपड़ो से अपने शरीर और आत्मा तक को अलग करना चाहते थे, लेकिन बीच सड़क का मामला था, इसलिये वानर सेना उनके कपड़े फाड़ने के मन्सूबे पर बार बार पानी फेर देती थी.खैर नेताजी के डान्स मे बहुत मजा आया, सारे रसो का समावेश था
हम लोगो ने काफी इन्जवाय किया बहुत मस्ती हुई, और खूब मजा आया.

बारह बजते ही धीरे धीरे लोगो ने खिसकना शुरु किया और नेताजी को भी ठेले पर लदवा कर उनके घर पहुँचाया गया.फिर मोहल्ले के सभी घरो मे रंग खेला गया, सभी के यहाँ तो हम लोग नही जा सके लेकिन ध्यान रखा गया कि जहाँ बालाये हो वहाँ पर रंग जरूर खेलने जाया जाय.इस बारे मे काफी विस्तार से लिखना पढेगा, सो फिर कभी. इसके बाद सभी लोग नहाने धोने अपने अपने घरो को निकल जाते और थोड़ा आराम करने के बाद फिर शाम को छह बजे इकट्ठे होते, क्योंकि हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया जाता. जो लोग गीले रंग से डरते थे,वो शाम को तशरीफ लाते और फिर गुलाल और गुझिया से होली मिलन होता.अब बात कवियों की, एक से एक पिटे हुए कवि तशरीफ लाते, और अपनी कविताये पढते

एक से एक पिटे हुए कवि तशरीफ लाते, और अपनी कविताये पढते.सारे कवि हम सब लोगो को कविताये सुना सुना कर पकाते

और सभी को छूट थी, क्या धोबी और क्या हलवाई. सभी आज कवि बन जाते,सभी कविताये पढकर अपने दिल की भड़ास निकाल लेते. किसी को कविता ना आती तो वो चुटकले सुनाकर संतोष कर लेता.आज के दिन वेज और नानवेज सभी कुछ अलाउड था.सभी से कविता पढवायी जाती. वो एक तरफ कविता पढते या चुटकुला सुनाते और दूसरी तरफ खान पान का दौर चलता रहता.कवि हम सब लोगो को कविताये सुना सुना कर पकाते लेकिन सच पूछो तो कविता सुनने कौन आता था, आधे से ज्याद लोग तो फ्री मे पकवान खाने ही आते थे.जब धीरे धीरे सारे बन्दे एक एक करके निकल जाते तो कवि सम्मेलन अपने आप खत्म हो जाता, कभी कभी चमचम रेडियो वाले को किसी अड़ियल कवि से भिड़ना ही पड़ता, जो एक भी श्रोता ना होते हुए भी कविता पढने के लिये अड़ा रहता, खैर ये तो होता ही रहता है.रंग खेलने का सिलसिला अगले दिन भी जारी रहता और लोग हँसते या गरियाते हुए रंग से नहाते, खैर परवाह किसे थी.शाम का वक्त फिर से या तो कवि सम्मेलन या फिर हास्य नाटिका, ये सिलसिला लगभग दो तीन दिन तक जारी रहता.

इस तरह से हम लोग अपनी होली को इन्जवाय करते. अब विदेशो मे कहाँ होली और कहाँ वो हुड़दंग. अब होली किसी वीकेन्ड पर पड़ी तो ठीक है नही तो सारा दिन आफिस मे खटते रहो और शाम को होली के नाम पर थोड़ी गुलाल बाजी, बस और क्या. लेकिन फिर भी कभी कभी पुराने दिन याद करके बहुत मजा आता है. आपके क्या अनुभव है, जरूर लिखियेगा.

7 Responses to “फाल्गुन आयो रे….भाग दो”

  1. टिप्णी और मदद के प्रस्ताव का शुक्रिया जितेन्द्र, तुम्हारे इस लेख ने होली की याद ताजा कर दी॥

  2. “अब बात कवियों की, एक से एक पिटे हुए कवि तशरीफ लाते, और अपनी कविताये पढते एक से एक पिटे हुए कवि तशरीफ लाते, और अपनी कविताये पढते.सारे कवि हम सब लोगो को कविताये सुना सुना कर पकातेऔर सभी को छूट थी, क्या धोबी और क्या हलवाई. सभी आज कवि बन जाते,सभी कविताये पढकर अपने दिल की भड़ास निकाल लेते. ”

    पढ़ने के बाद लागा कि तुम अपनी कोई पिटी हुई कविता ठेलने
    वाले हो.पर हमें दोहरी खुशी हुयी जब आशंका गलत निकलीतथा पोस्ट सतरंगी.वायदे के मुताबिक हम गुलाली बधाई भेज रहे हैं.

  3. asthma and medication

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  4. protopic

    protopic

  5. […] फाल्गुन आयो रे : भाग दो […]

  6. Hi

    Heppy hoil

  7. […] हम वैसे तो अपने मोहल्ले की होली को विस्तार से लिख चुके हैं, अगर आपने ना पढ़ी हो तो हमारे ये दोनों लेख जरूर पढ़ लें, ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए। मजा आए तो टिप्पणी जरूर करिएगा। फाल्गुन आयो रे भाग एक फाल्गुन आयो रे भाग दो […]