अनुगूंज 18: मेरे जीवन में धर्म का महत्व


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अनुगूंज 18: मेरे जीवन में धर्म का महत्व
Akshargram Anugunjसबसे पहले तो संजय भाई को बहुत बहुत बधाई, इस बार के अनुगूँज के आयोजन के लिये। संजय भाई ने विषय भी बहुत सही चुना है। मेरे जीवन मे धर्म का महत्व। काफ़ी विवादास्पद विषय है, हर व्यक्ति की धर्म की परिभाषा अलग अलग होती है।अभी इसी विषय पर अमित के ब्लॉग पर काफी विवादास्पद टिप्पणियों का आदान प्रदान हुआ है।बस जूता लात नही हुई, वो भी इसलिये कि सभी लोग सिर्फ़ इन्टरनैट पर थे, आमने सामने होते तो शायद वो भी हो जाती।खैर इस बारे हर व्यक्ति स्वतन्त्र है, अपनी अपनी बात कहने के लिये|जहाँ तक मेरा ख्याल है मैं भी स्वतन्त्र लोगों की श्रेणी मे आता हूँ(हालांकि शादी के बाद स्वतन्त्रता कहाँ बची रहती है) फिर भी मै कोशिश करता हूँ अपने विचार आपके सामने रखने की।किसी शायर की एक पंक्ति याद आ रही है।
खुदा ने इन्सान बनाया, हमने उसे हिन्दू और मुसलमान बनाया

धर्म एक व्यापक शब्द है। धर्म की परिभाषा भी लोगों ने अपने अपने हिसाब से दी।परिभाषा के रुप मे देखा जाय तो धर्म, जीवन को सुचारु रुप से चलाने के नियमों और सिद्दान्तो का नाम है। लेकिन इस परिभाषा के एक एक शब्द पर वाद विवाद किया जा सकता है।मै दूसरे के धर्म पर कोई टीका टिप्पणी नही करना चाहता, इसलिये आइये हिन्दू/सनातन धर्म की बात करते है।विस्तार मे आशीष पहले ही बता चुका है।हिन्दू धर्म का आधार निम्न बिन्दुओ पर आधारित है:

  • अहिंसा
  • सत्य
  • पूजा अनुष्ठान
  • कर्म
  • पुनर्जन्म (जन्म जन्मान्तर)
  • मोक्ष
  • स्वर्ग-नर्क

अगर मेरी माने तो सत्य अब ढूंढे नही मिलता, अहिंसा का कोई नामो निशान नही है,आपको कंही मिले तो बताना मुझे भी। पूजा अनुष्ठान पन्डितों का पेशा बन गया है, कर्म का क्या पूछो, हर व्यक्ति हरामखोरी को ही अपना कर्म मानता है। स्वर्ग नर्क और मोक्ष के विचार सिर्फ़ बुढापे में ही याद आते है।तो क्या हमारा धर्म अपने विचार खो चुका है? नही, एकदम नही। दरअसल परेशानी तब शुरु हुई, जब वेद पुराणों मे लिखी बातों की, विद्वानो और स्वयंभू विद्वानों ने अपने फायदे के लिये,अलग अलग तरीके से व्याख्या की।यही मूल समस्या रही।फिर हर काल /परिस्थिति में धर्म को जो रास्ता दिखाना चाहिए था, वो नही दिखा। इतने विरोधाभास हैं कि लोग आज भी नही समझ पाते, जहाँ किसी विद्वान से तर्क वितर्क करों तो आप पर नास्तिक का ठप्पा लगा दिया जाता है और अधर्मी का खिताब मुफ़्त मे मिलता है। फिर उस धर्म का विकास कैसे होगा, जो अपनी आलोचना नही सह सकता और विसंगतियों पर चर्चा ही नही करना चाहता।लेकिन धर्म का विकास करना ही कौन चाहता है? अगर वो हो गया तो इन कर्मकान्डियों की दुकानें ना बन्द हो जायेंगी।

लेकिन सवाल ये उठता है, इतनी क्लिष्ठ भाषा मे ये ग्रंथ क्यों लिखे गये, अरे जब ये सभी मानव जाति के लिये लिखे गये तो सीधी साधी संस्कृत मे लिखो, एक ही शब्द के दस दस मायने, ये क्या माजरा है भाई। जहाँ तक अपना दिमाग दौड़ता है उस समय सारे ऋषि मुनियों के बीच सुपर रिन की जमकार वाला खेल चल रहा होगा,भला उसका ग्रन्थ मेरे ग्रन्थ से क्लिष्ट कैसे? बस इसी चक्कर मे लिखते चले गये ये लोग।फिर बाद मे श्रम व्यवस्था के हिसाब से पंडितो को यह काम दे दिया गया,वे तो बेचारे आज भी ग्रन्थ पढकर अपने हिसाब से (जितना उनको आता है) जनता को समझाते है, लेकिन जनता है कि समझती ही नही।अब बात करते है विरोधाभास की

अब विरोधाभास को ही लें, जीवन मे हर जगह है, धर्म मे भी क्यों ना हो।एक भगवान जी कहते है ये मत करो, वो मत करो, ऐसा मत खाओ, वैसा मत खाओ, दूसरे बोलते कुछ नही, बस खाते पीते रहते है और मस्त रहते है।पौराणिक कहानियों मे भी बताया गया है कि देवता लोग खुद तो पी पा कर टुन्न रहते थे।पी पा का क्या मतलब हुआ? अमां यार! सोमरस पीकर और अप्सराओं को पाकर टुन्न रहते थे, अब खुश। साथ ही लगे हाथों मनुष्यों को बिना सोचे समझे वरदान देते रहते थे, बाद मे पछताते भी थे, मतलब? अमां खुद ही पढ लो ना,सारी अमर चित्र कथा हम थोड़े ही बताएंगे।दूसरी तरफ़ एक और जाति भी थी, असुरों की, वे बहुत शक्तिशाली थे, देवताओं की असुरों से हमेशा XXX थी, उन्हे डर लगा रहता था कि असुर उनका राज्य हड़प करके,उनकी अप्सराओं को छीन लेंगे।अबे जिसके पास ताकत होगी वो तो छीनेगा ही, जिसकी लाठी उसी की भैंस सॉरी अप्सराएं।हमको तो आजतक नही समझ मे आया, कि इन्द्र का मन्त्रिमन्डल काहे के लिए था, करते धरते तो कुछ थे नही, इत्ते सारे काहे भर दिए थे, थोक में।हर इलाके का एक मन्त्री, बिहार का मन्त्रिमन्डल था क्या?

अब बेचारे मनुष्य क्या करते? करते क्या, उनको तो बता दिया गया था, भक्ति करो और उपवास रखो।ऐश करने के लिये हम है ना।यहीं तक बात रहती तो ठीक थी, मनुष्य स्वभाव वैसे ही चंचल होता है, इधर उधर भटकता रहता है।ऊपर धर्म मे कोई पाबन्दियां तो थी नही, इसलिये धर्म के ठेकेदारों की दुकाने खुल गयी।हरेक ने अपना अपना डिजाइनर धर्म बनाया, अपने अपने शिष्य बना लिए। इस तरह नये नये पन्थों का चलन हुआ। बात यहाँ तक होती तो भी ठीक थी, फिर शुरु हुआ, किसका धर्म श्रेष्ठ वाला एपीसोड।इसके चक्कर मे लोग एक दूसरे के धर्म की गलतियां निकालते चले गये और आपस मे बैर बढता चला गया। अरे क्या फ़र्क पड़ता है धर्म क्या है।हाँ विश्व हिन्दू परिषद वालों को फर्क पड़ता है।

मेरा धर्म
मै तो ना तो मूर्ति पूजा मे और ना ही हवन अनुष्ठान मे यकीन करता हूँ, लेकिन साथ ही मै कोशिश करता हूँ कि घरवालों के धार्मिक विचारों को क्षति ना पहुँचाऊ, इसलिये कभी कभार घर की पूजा वगैरहा में बैठ जाता हूँ, भले ही दिमाग कंही और हो।उस समय भी मै धर्म निभा रहा होता हूँ, एक बेटे/पति/पिता का धर्म। मेरी नजर मे कर्म ही धर्म है। इन्सान अगर अपने कर्म ठीक ढंग से करे वही सबसे बड़ा उपकार होगा मानव जाति पर।धर्म हमे रास्ता दिखाने के लिये होता है ना कि हमारा रास्ता रोकने के लिये । यदि धर्म के नाम पर कोई भी चीज मेरी जीवनशैली मे रोड़े अटकाती है मै उसे हटा दूंगा, हमेशा हमेशा के लिये। एक बात और कहना चाहूँगा, धर्म कभी गलत नही होता, ना धर्मग्रन्थों मे लिखी बात गलत होती है, हमेशा उस बात को आप तक पहुँचाने वाले गलत होते है।धर्मग्रन्थों मे लिखी बात उस समय के हिसाब से एकदम सही होंगी, लेकिन यदि वर्तमान काल मे वो बाते व्यवहारिक नही है तो उन्हे छोड दिया जाना चाहिए, यूं बेड़ी की तरह धर्मग्रन्थों मे लिखी एक एक बात का अनुसरण करना सही नही है।
जाते जाते गालिब की एक गजल जगजीत सिंह के स्वर में


मै ना हिन्दू ना मुसलमान…..मुझे जीने दो
दोस्ती है मेरा ईमान मुझे जीने दो… (यहाँ सुने)

21 Responses to “अनुगूंज 18: मेरे जीवन में धर्म का महत्व”

  1. वाह वाह, क्या विचार हैं, पढ़कर मैं धन्य हो गया। 😀 और साथ ही लिखने के लिए कुछ नए मसालेदार विषय भी सूझ गए!! 😉

  2. “धर्म कभी गलत नही होता”
    मुझे हमारे टीपीकल धर्मो पे शंका इसलिये है क्योकि अगर वे गलत नही होते तो दूसरे धर्म पनपते ही नहि। अगर कोइ हिन्दु धर्म अपनाता है तो भले ही उसने मुस्लिम के प्रति मानवता भरा अभिगम रखा हो लेकिन दर असल उसने मुस्लिम को गलत बताया है, वरना वो मुस्लिम धर्म ही क्यो अंगिकार नही करता?
    सारे धर्म जिन बुनियाद पे खडे है वे उनके धार्मिक ग्रंथ है। धार्मिक ग्रंथ कोइ एक बंदे ने सालो पहले लिखा था। अब सारे लोग उस बंदे की स्टोरी सही मान लेते है। अब पूरी रामायण सिर्फ वाल्मिकी ने लिखी और करोडो लोग राजा राम को भगवान कहेने लगे। वेसे मैने सुना था की रामायण के भी अलग अलग रूप है। अब शायद वाल्मिकी ने रामायण सिर्फ एक नोवेल की तरह लिखी होतो? वेसे बाइबल ओर कुरान में भी एसी कोंट्रोवर्सी है। कोइ कहता है की जोन दी बेप्टीस्ट ने इसु मसिहा को इसाइ बनाया था। केथोलिक इसे नही मानते। क्यो? क्योकि उनके धर्म के स्थापक को कोइ ओर गुरु केसे हो सकता है?

    मुजे जो बात पसंद नही आयी वो ये है की सारे ब्लोगर मानवता को ही एक मुद्दा बना लिये है।
    कभी सोचा है की सारे धर्म में मुख्य पात्र, ज्यादातर शिष्यो ओर धार्मिक ग्रंथ के लेखक मर्द ही होते है!! यानि धर्म रचने में भी भेदभाव। धर्म की उत्पति से जुडा हुआ आध्यातमवाद का मुद्दा भी अनछुआ रखा गया है।

    शायद लोगो को फिर से पूछना पडॆगा की आध्यतमवाद और मरने के बाद क्या होगा जेसे मुद्दे पर भी अपनी राय लिखो। ये भी आपके धर्म से जुडा हुआ है।

    सबसे मजा आया तब जब आपने लिखा “देव पीकर टुन्न रहते थे।” ओर लोग उनको पूजते है!! सही कहा!!

  3. मुझे हमारे टीपीकल धर्मो पे शंका इसलिये है क्योकि अगर वे गलत नही होते तो दूसरे धर्म पनपते ही नहि।

    मैं बताता हूँ क्यों। महाभारत (टीवी पर)देखी या पढ़ी है? वो दृश्य याद है जब वन में भटकते पांडव एक सरोवर किनारे पहुँचते हैं और यक्ष के रूप में विराजमान धर्मराज के प्रश्नों के उत्तर दिए बिना पानी पीने की चेष्टा करते हुए मृत हो जाते हैं? तब युधिष्ठिर उनके प्रश्नों के उत्तर देते हैं। एक प्रश्न था कि धर्म कहाँ है, क्या ॠषियों की वाणी में? तो युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि धर्म व्यक्ति के हृदय की गुफ़ा में है, ॠषियों की वाणी में नहीं क्योंकि किसी भी ॠषि के पास सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है। तो इसी तरह अनेक धर्मों की स्थापना के पीछे भी यही कारण है, कोई तथाकथित धर्म सम्पूर्ण नहीं है, इसलिए अलग अलग विचारों और सभ्यताओं के कारण अलग अलग धर्मों की उत्पत्ति हुई। वैसे भी जब ये धर्म उत्पन्न हो रहे थे, तब वे एक दूसरे से अन्जान थे, इसलिए जिस समय मक्का-मदीना में इस्लाम का उदय हो रहा था उसी समय योरोप में ईसाई धर्म परवान चढ़ रहा था।

    अब पूरी रामायण सिर्फ वाल्मिकी ने लिखी और करोडो लोग राजा राम को भगवान कहेने लगे। वेसे मैने सुना था की रामायण के भी अलग अलग रूप है। अब शायद वाल्मिकी ने रामायण सिर्फ एक नोवेल की तरह लिखी होतो?

    भई वाल्मिकी की लिखी रामायण का तो कोई प्रमाण नहीं है। हाँ पर तुलसीदास कृत रामचरितमानस का प्रमाण है, वे तो मुग़ल बादशाह अकबर के समय में अवध में रहते थे।

    कोइ कहता है की जोन दी बेप्टीस्ट ने इसु मसिहा को इसाइ बनाया था। केथोलिक इसे नही मानते। क्यो? क्योकि उनके धर्म के स्थापक को कोइ ओर गुरु केसे हो सकता है?

    किसी धर्म के संस्थापक का कोई और गुरू क्यों नहीं हो सकता। मुग़ल बादशाह ने अपने धर्म दीन-ए-ईलाही की स्थापना की, क्या उनका कोई गुरू नहीं था? 😉 महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की, क्या उनको कहीं से ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ?

    कभी सोचा है की सारे धर्म में मुख्य पात्र, ज्यादातर शिष्यो ओर धार्मिक ग्रंथ के लेखक मर्द ही होते है!! यानि धर्म रचने में भी भेदभाव।

    भई जिस समय इन सबकी स्थापना हुई उस समय समाज पुरूष प्रधान था, आज भी है। पर ऐसा क्यों कहते हो कि धर्मों में मुख्य पात्र पुरूष ही हैं? हिन्दु धर्म में नारी को शक्ति का रूप माना गया है, क्योंकि वह जननी है। कितनी ही देवियाँ हैं। भक्तों में भी क्या शबरी, राधा, मीरा को भूल गए? और जहाँ तक मैं जानता हूँ, इस्लाम में भी स्त्री को आदरणीय बताया गया है, अब वो बात अलग है कि लोग क्या आचरण करते हैं।

  4. रवि भाई की टिप्पणी थी:

    मुझे हमारे टीपीकल धर्मो पे शंका इसलिये है क्योकि अगर वे गलत नही होते तो दूसरे धर्म पनपते ही नहि।

    नही मेरा ऐसा मानना नही है, धर्म गलत नही थे ना धर्मग्रन्थों मे लिखी बातें गलत हैं, अलबत्ता उनके समझाने वाले या व्याख्या करने वाले गलत थे।एक उदाहरण देना चाहूंगा:धर्मग्रन्थ तो एक संविधान की तरह हैं जिनमे लिखी धाराएं इतनी क्लिष्ठ है कि हमे पंडित मौलवियों को विचौलिया बनाना पड़ता है, वो जैसे चाहे वैसे धर्म की व्याख्या करते है और हम लोग चुपचाप उनको झेलते रहते हैं।कभी कभी तो उनसे परेशान होकर ही हम कोर्ट कचहरी(धर्म/मजहब) से दूर भागते है। यहाँ भी कुछ वैसा ही है, इन बिचौलियों ने ही सबकुछ बरबाद किया है, कि लोग धर्म मे अपनी आस्थाओं से डगमगा रहे हैं।

    शायद लोगो को फिर से पूछना पडॆगा की आध्यतमवाद और मरने के बाद क्या होगा जेसे मुद्दे पर भी अपनी राय लिखो। ये भी आपके धर्म से जुडा हुआ है।

    हां मुझे ये विषय अच्छा लगा। मै जरुर लिखना चाहूंगा इस पर। रखिए अगली अनुगूँज इस पर, तब तक हम भी कुछ रिसर्च कर लेते है इस विषय पर।

    बाकी सवालों के जवाब अमित ने दे ही दिए हैं। मै तो चाहता हूँ इस विषय पर एक विस्तृत चर्चा हो।

  5. मै सहमत नही अमित. इन सब धर्मो की स्थापना अलग अलग जगह नही वरन एक ही जगह यानि येरुशलम से हुई थी. वैसे भी मै इस्लाम, जैन, बोद्ध, इसाइ आदि को धर्म नही परंतु सम्प्रदाय ही मानता हुँ. क्योंकि यह सब एक व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित थे, तथा वे सब एक विशेष शक्ति को सर्वोपरी मानते थे, और मानते हैं. हिन्दु भी धर्म नही एक संस्कृति ही कही जा सकती है. इसे किसी व्यक्ति विशेष ने स्थापित नही किया. हिन्दु संस्कृति और ग्रीस या रोमन संस्कृति मे काफी साम्यता भी है. वे भी भगवान को पूजते थे. समय के साथ वो सब सभ्यताएँ समाप्त हो गई पर हमारी संस्कृति बच गई.

    पर इन सबके बीच बहुत कुछ छुटा जा रहा है. हम क्या सोच रहे है? हम बहस कर रहे है कि क्या किताब मे क्या लिखा है, या किसने क्या कहा है, क्या लिखा है. पर वास्तव मे सोचना यह है कि जो कुछ हम सुनते आए है, जानते आए है, जिन चीजो पर विश्वास करने को हमारे बडो ने हमे सिखाया है, वो कितना सार्थक है हमारे लिए.

    धर्म मात्र देवी देवताओ, भगवान, पूजा अर्चना तक सिमित नही है. धर्म है क्या? आस्था!! विश्वास का चरम!! यही ना. बाकी तो ये भगवान वगवान जैसा कुछ होता नही है.

  6. “नही मेरा ऐसा मानना नही है, धर्म गलत नही थे ना धर्मग्रन्थों मे लिखी बातें गलत हैं, ”

    जीतुजी, शाष्त्रो मे सब सही लिखा है. यह गेरेंटी आप कैसे ले सकते है.

  7. जीतुजी, शाष्त्रो मे सब सही लिखा है. यह गेरेंटी आप कैसे ले सकते है.

    innocent until proven guilty!! 😉

  8. अमित, सही है आपका द्रष्टिकोण ।
    लेकिन मैने यहा जो भी लिखा है वह थोडा रिसर्च करके लिखा है। मै चाहूंगा की जो भी मेरे सवालो का जवाब दे वो थोडा रिसर्च कर के दे। मुझे खुशी होगी अगर मुझे जवाब मिलते है तो , साला दिमाग तो शांत होगा!!
    अब आप को यह बताना चाहूंगा की मुस्लिम और इसाइ दोनो धर्म एक ही जगह पनपे थे। यहूदी धर्म मे से दोनो की स्थापना हुइ थी। अरबस्तान के रण मे यह धर्म साथ मे पनपे। फिर इसाइ धर्म तुर्की होते हुए रोमन राजाओ का सन 200 के आसपास प्रिय धर्म हो गया। ये वही राजा=महाराजा थे जिनके बुजुर्गो ने यहुदी अपनाते हुए इसाइ धर्म पे इसु के समय मे पाबंदी लगायी थी। अब बाइबल के नये टेस्टामेंट को इसाइ लोग सबकुछ मानते है। लेकिन उस समय इसाइ धर्म मे ही, खुद इसु के जीते जी दो संप्रदाय थे जो इसु के बारे मे अपना विचार रखते थे। एक संप्रदाय नेस्टोरियन था जिसकी बाइबल थोडी अलग थी। अब जब रोमन राजा ने इसाइ धर्म स्वीकार किया तो ओफिशिय्ल धर्मग्रंथ बाइबल आ गयी। नेस्टोरियन लोग के बाइबल मे इसु को हसता हुआ और इसु को उनकी शिष्या मेरी मेगडेवल को चुंबन करता हुआ बताया गया है। आज के सारे धार्मिक इसाइ इस चिज मे विश्वास नही करते और नफरत करते है एसा बतानेवाले से। यह ग्रंथ की आज कुछ प्रते ही बची है। जोन ध बेपटिस्ट ने इसु पर पवित्र पानी छिडककर उनको इसाइ धर्म के ओर बढाया था। आप भले ही कहे की भगवान का गुरु होता होगा लेकिन इसाइ के मुताबिक भगवान ने इसु को भेजा था यहा और वो केसे किसी ओर आदमी के पाससे धर्म सिख सकता है? वेसे मेरी जानकारी के मुताबिक बुध्ध के भी कोइ गुरू नही थे। कोइ बंदा ये नही चाहेगा की वो जिसको पूजता है या सर्व शक्तिमान मानता है वह किसी ओर की पूजा करे। हालाकि हिन्दु ऐसा करते है।

    जी हां, हर धर्म मे औरत को शक्ति बताया गया है। लेकिन फिर भी जैन धर्म के 24 तिर्थंकर, हिन्दु धर्म के मुख्य देव ब्रम्हा, शिव या विष्णु, पयगंबर या इसु सब मर्द थे। वोही औरते देवी थी जो उनकी माता या बीवी थी। यह सब एक राजाशाही जेसा प्रतित हो रहा है मुझे तो। धर्मग्रंथ लिखने मे अगर समाज के हर अंग को समान अधिकार न मिला हो तो वो ग्रंथ पढके क्या फायदा? अब ज्यादातर धर्म का मार्केटिंग राजा-महाराजा ने किया है। भारत मे इस्लाम मुघल बादशाहो ने ज्यादा फैलाया। इसाइ धर्म की भी बैंड बज जाती अगर रोमन महाराजा उस समय पर पनप रहे, इसाइ से भी पावरफूल आयरिस (IRIS) जेसे धर्म को खत्म ना कर देते। याद रहे इसाइ और इस्लाम धर्म बहुत ही खून खराबे से फैले है।
    कहेने के लिए या शेर करने के लिए काफी कुछ है लेकिन जीतूजी के घर पे अतिथि है हम। 😀 तो बाकी शायद मेरे घर – ब्लोग पे लिखूंगा। अब कोइ थोडा बहुत पढ कर कोइ उत्तर दे तो मजा आयेगा।

  9. भई अपनी समझ में अभी तक नहीं आया कि आपमें से कोई यह कहने कि हिम्मत क्यों नही करता कि धर्मग्रंथो में ही झुठ तथा अनाप-सनाप लिखा हैं. एक बात और स्पष्ट होनी चाहिए, एक कहता हैं ‘जो किताबो में लिखा हैं वही धर्म नहीं हैं……’, तो दुसरा कहता हैं,’ धर्म वही हैं जो धर्मग्रंथो में लिखा हैं हाँ हम व्याख्या अलग अलग करते हैं.’
    अमित का कहना हैं , अलग अलग धर्म अलग अलग जगह बने थे, पर भाई मेरे, धर्म प्रवर्तको का दावा हैं कि या तो वे सर्वज्ञ थे (महावीर, बुद्ध) या उन्हे सीधे परमात्मा से संदेश प्राप्त हुआ था (मोहम्मद, ईशु) दोनो स्थितियों में अनभिज्ञता का कोई कारण नही रह जाता. इन्ही सर्वज्ञो के ग्रंथो में लिखी बात जब विज्ञान कि कसौटी पर खरी नहीं उतरी तो सोक्रेटेस जैसो को ज़हर दे दिया गया.
    इसी प्रकार कैसे माने मदर मेरी कुंवारी थी या हनुमान ने सूर्य को निगल लिया था.
    या फिर राहु के निगने से सूर्य ग्रहण होता हैं, हमारी धरती शेषनाग के फन पर टिकी हैं.
    मुझे पता हैं अब सवाल दागा जायेगा ‘तुमने पढे हैं धर्मग्रंथ ? पहले प्रमाण दो.’
    तो बता देता हुं जब-जब भी कोशीष कि हजम नहीं कर पाया.
    और कमसे कम जो उदाहरण ऊपर दिये उनसे तो आप सहमत होंगे ही.

  10. मै आपके विचारों से कुछ सहमत तथा कुछ असहमत हूं। वैसे आपने अच्छा लिखा है। इस विषय पर चर्चा करके सभी को मजा आ रहा है, ये और बात है परंतु इस चर्चा कि सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हम दोबारा धर्म में विश्वास कर पाएंगे।
    मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि हमें धर्म से नफरत ना करके इसमें आगई बुराईयों का नाश करने की सोचनी होगी, धर्म में अनास्था करके नहीं अपितु समाज सुधारक बनकर।
    जैसे
    राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया और अपने प्रयासों से अंग्रेज सरकार से इसे गैर कानूनी व अवैध घोषित करवा लिया। केवल सती प्रथा को रुकवाने तक ही राजा राम मोहन राय ने अपने कार्य की इतिश्री नहीं समझ ली। उसे सुधारने के लिये वे सतत प्रयत्नशील रहे। उन्होने स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही पति कि सम्पत्ति में स्त्रीयों के अधिकार को भी उन्होने पूर्ण समर्थन किया।

  11. अच्छी चर्चा हो रही है, काफी मजा आ रहा है।मेरे विचार से इस चर्चा को सिलसिलेवार आगे बढाना चाहिए। एक मुद्दा एक समय, नही तो सब कुछ गुड़ गोबर हो रहा है। मेरा ख्याल है कि इस बार एक बन्दा एक सवाल लिखे और बाकी लोग उसका जवाब दें। आज फोरम वाले साफ़्टवेयर की कमी खल रही है, नही तो बहुत अच्छा मंच मिल जाता। खैर।

    युगल भाई, आज अगर हम यहाँ सब लोग चर्चा कर रहे है तो इसलिये कि हम अपने अपने धर्म को नफ़रत नही करते वरन सभी दिल से चाहते हैं कि जो धर्म पर खुले मन से चर्चा हो। आधी अधूरी नही, किसी पंडित से चर्चा करो तो वो हमे अधर्मी कहकर, भगा देगा, तभी तो यहाँ चर्चा हो रही है।

    एक बात का ध्यान रखें। मै चाहूंगा हम विचारों की लड़ाई करें, लेकिन आपस मे नही।एक दूसरे के सम्मान मे कोई कमी नही रखिएगा। तभी हम मिलकर इस विषय पर सही तरीके से बहस कर सकेंगे।

  12. जीतू भाई, पहले तो मैं यह कहना चाहूंगा कि धर्मग्रन्थ कठिन संस्कृत में नहीं लिखे गए थे। अगर आप किसी भी आधुनिक इतिहासकार (इसमें वामपन्थी रुझान के इतिहासकार भी शामिल हैं) की पुस्तक देखें, तो आप यही पाएँगे कि उस समय उसी तरह की संस्कृत बोल-चाल की भाषा थी। उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद संहिता की संस्कृत उस समय के आर्य बोलते थे। हाँ, इतना ज़रूर है कि वक़्त के साथ हर भाषा की ही तरह संस्कृत में भी परिवर्तन आते गए और इस वजह से तत्कालीन संस्कृत में लिखे ग्रन्थों का मतलब समझना ख़ासा कठिन होता गया।

    मैं रवि भाई की इस बात से भी सहमत नहीं हूँ, कि ज़्यादातर धार्मिक ग्रंथों के लेखक मर्द हैं। कम-से-कम हिन्दू धर्म के बारे में तो यह बात पूरी तरह ग़लत है। संहिताओं के कई सूक्त महिला ऋषियों ने लिखे हैं। बहुत से उपनिषद् में आप पाएंगे कि महिलाओं का पुरुषों की तुलना में ज़्यादा योगदान है, जैसे- छान्दोग्योपनिषद् में मैत्रेयी और किसी अन्य उपनिषद में गार्गी आदि अनेक उदाहरण हैं। देवियों में भी सरस्वती, कराली और सिनीवाली आदि बहुत सी वैदिक कालीन देवियाँ पूरी तरह स्वतन्त्र तौर पर पूज्य हैं; न कि किसी पुरूष देवता से जुड़े होने के कारण। जितना मुझे ज्ञात है, जैन मतावलम्बियों के तीर्थंकरों में से मल्लीनाथ महिला थीं। हाँलाकि यह मुख्यत: श्वेताम्बर सम्प्रदाय का मत है, दिगम्बर उन्हें पुरुष मानते हैं।

    जहाँ तक पुराणों के किस्से-कहानियों की बात है, वे रूपक का इस्तेमाल करके धर्म के तत्वों को समझाने की कोशिश भर है, न कि कोई अकाट्य तथ्य। जिन्होनें सभी पुराणों का यथोचित् अध्ययन किया है; उन्हें यह मालूम होगा कि पुराणों में ख़ुद कहा गया है कि जहाँ श्रुति (वेदों का ज्ञानकाण्ड) और स्मृति (पुराण आदि) में विरोधाभास हो, वहाँ श्रुति के मत को गृहण करना चाहिए और स्मृति के मत को त्याग देना चाहिए।

    और अगर वाल्मीकि रामायण को उपन्यास की तरह लिखा गया होता, तो लगभग समान घटनाक्रम कम्ब रामायण, अध्यात्म रामायण, वाल्मीकि रामायण की ही तरह प्राचीन तमिळ रामायण व अन्य कई रामायणों और बहुत से दूसरे ग्रन्थों जैसे अग्नि पुराण वगैरह में कैसे मिलता? मित्रों, इन बातों पर आपकी क्या राय है?

  13. बहुत खूब चर्चा हो रही है जिससे सभी की मालूमात में इज़ाफा होगा, जीतू जी मुझे आपका ये लेख वाकई बहुत पसंद आया खास तौर पे आप ही के शब्द
    “सभी मानव जाति के लिये लिखे गये तो सीधी साधी संस्कृत मे लिखो, एक ही शब्द के दस दस मायने, ये क्या माजरा है भाई।”
    और
    “मेरी नजर मे कर्म ही धर्म है।” ये कुछ ज़ियादा ही पसंद आया।

    भाई रवी कामदारः
    यार तुमहारे ये शब्द तो मुझे बहुत अच्छे लगे “अगर वे गलत नही होते तो दूसरे धर्म पनपते ही नहि।” बहुत ही अच्छी बात कही है आपने। आप ये मत देखो के धर्म में किया रखा है, धर्म की बुराईयाँ न खोजो, मेरा आपसे कहना ये है के सिर्फ ऐसी ज़िनदगी जियो जैसा आप चाहते हो। इसलाम में ऐसे बहुत सारी बातें हैं जिसे मेरा दिमाग मानता ही नहीं, मुसलमानों को देख कर कभी कभी हंसी आती है के ये पागल लोग कैसे जिये जारहे हैं, रोज़ सुबाह होती है शाम होती है बस ऐसे ही चले जारहे हैं, दिमाग है पर सोचते नहीं अगर सोचें तो पाप सम्झते हैं। माना कि आपको अपने धर्म पर भरोसा नहीं मगर उसपर नुक्ता चीनी न करो क्योंकि दूसरों को तकलीफ होती है और दूसरों को तकलीफ देने वाले इनसान कहलाने के लायक नहीं। मैं भी पहले पहले इस्लाम पर बहस करते नहीं थकता, मोलवी लोग मेरे अजीब सवालों को सुनकर मुझे पागल कहने लगे, कहीं आपको भी लोग पागल न कहें 😉 हां मेरा और आपका दिमाग नहीं मानता के ये धर्म आसमान से उतरा है? इस धर्म को बनाने वाले भी इनसान ही हैं कोई फरिश्ता नहीं। अब सारी दुनिया के लोगों को एक धर्म में लाया तो नहीं जा सकता पर मेरे और आप जैसे लोग मिलकर एक नया धर्म तो बना सकते हैं! इस में हंसने की किया बात है? हमें कुछ नहीं करना, दुनिया वालों को बताने की कोई जरूरत नहीं के “आऔ भाईयों एक नया धर्म शुरू करना है” सिर्फ इतना करना है के अपने आपको ये पुराने ज़मानों के धर्मों से निकाल कर आज़ाद कराना है, बस बन गए आप “इनसान”। मेरा मानना ये है कि जब तक हम धर्म में रहेंगे ये हम को जीने देगा न दूसरों को जीने देगा।

  14. @रवि:

    लेकिन मैने यहा जो भी लिखा है वह थोडा रिसर्च करके लिखा है। मै चाहूंगा की जो भी मेरे सवालो का जवाब दे वो थोडा रिसर्च कर के दे।

    भई कोई शोध तो नहीं किया, फ़िर भी लिखने का दुःसाहस कर रहा हूँ, प्रेम भाव से झेल लो। 🙂

    अब आप को यह बताना चाहूंगा की मुस्लिम और इसाइ दोनो धर्म एक ही जगह पनपे थे। यहूदी धर्म मे से दोनो की स्थापना हुइ थी। अरबस्तान के रण मे यह धर्म साथ मे पनपे। फिर इसाइ धर्म तुर्की होते हुए रोमन राजाओ का सन 200 के आसपास प्रिय धर्म हो गया।

    भई मैंने यह तो कहा नहीं कि ईसाई और इस्लाम धर्मों की अलग अलग जगह उत्पत्ति हुई। मेरी टिप्पणी दोबारा पढ़िए, मैंने कहा है “जिस समय मक्का-मदीना में इस्लाम का उदय हो रहा था उसी समय योरोप में ईसाई धर्म परवान चढ़ रहा था”। अब जो आप कह रहे हैं और जो मैं कह रहा हूँ उसमे बहुत अन्तर है, क्योंकि आप उत्पत्ति की बात कर रहे हैं और मैं लोकप्रियता और उत्थान की बात कर रहा हूँ। तो इसलिए आप भी सही हैं और मैं भी, जन्म दोनो समुदायों का एक ही जगह हुआ, पर इस्लाम अरब में पनपा और ईसाई धर्म योरोप में पनपा।

    आप भले ही कहे की भगवान का गुरु होता होगा लेकिन इसाइ के मुताबिक भगवान ने इसु को भेजा था यहा और वो केसे किसी ओर आदमी के पाससे धर्म सिख सकता है? वेसे मेरी जानकारी के मुताबिक बुध्ध के भी कोइ गुरू नही थे। कोइ बंदा ये नही चाहेगा की वो जिसको पूजता है या सर्व शक्तिमान मानता है वह किसी ओर की पूजा करे।

    लोग कुछ भी मानते हों, पर जहाँ तक मैंने पढ़ा है, ईशु ने सदैव ही अपने को ईश्वर का पुत्र कहा है, ईश्वर नहीं। और ये लोगों का भ्रम है कि धर्म संस्थापक आदि का कोई गुरू नहीं होता या ईश्वर का कोई गुरू नहीं होता। क्या आपने नहीं पढ़ा कि माता ही बालक की प्रथम गुरू होती है? गुरू वह है जो आपको कुछ सिखाए। पौराणिक कथाओं में भी ईश्वर के जिन अवतारो का ज़िक्र है उन्होंने भी किसी न किसी गुरू से शिक्षा दीक्षा ली, रामचन्द्र ने भी और कृष्ण ने भी। हाँ अब इन अवतारों के विषय में मुझे केवल हिन्दु धर्म सम्बन्धित ही ज्ञान है, और धर्म समुदायों के अवतारों के बारे में कभी पढ़ा नहीं।

    इसी तरह कैसे कह सकते हैं कि गौतम बुद्ध का कोई गुरू नहीं था? उनको ज्ञान बोद्धी वृक्ष पर लटकता हुआ नहीं मिला था। यदि यह सही है कि उनको ईश्वर ने ज्ञान दिया, तो उनके गुरू ईश्वर ही तो हुए!!

    अब ज्यादातर धर्म का मार्केटिंग राजा-महाराजा ने किया है। भारत मे इस्लाम मुघल बादशाहो ने ज्यादा फैलाया। इसाइ धर्म की भी बैंड बज जाती अगर रोमन महाराजा उस समय पर पनप रहे, इसाइ से भी पावरफूल आयरिस (IRIS) जेसे धर्म को खत्म ना कर देते।

    भई उस समय प्रैस मीडिया आदि नहीं थे!! 😉 राजे-महाराजे ही उस समय इतना प्रभाव रखते थे कि दूसरों को प्रभावित कर सकें। तो इसलिए वो प्रचार नहीं करते तो कौन करता? आम आदमी इतना साधन-सम्पन्न और प्रभावशाली नहीं होता था(आज भी नहीं है)।

    याद रहे इसाइ और इस्लाम धर्म बहुत ही खून खराबे से फैले है।

    हाँ मुझे मालूम है, पर यह न तो उनके धर्म ग्रन्थों में लिखा है और न ही ईशु या मोहम्मद ने कभी ऐसा कहा कि दूसरों को जबरन अपने धर्म की राह का राही बनाओ अन्यथा मार डालो!! यह तो उस समय के प्रभावशाली लोगों(राजे-महाराजों) की बर्बर मानसिकता थी जो सोचती थी कि या तो दूसरा व्यक्ति उनका साथ दे अन्यथा जीवन से हाथ धोए(जैसे कि स्टॉर वार्स में सिथ का सोचना था)।

    @संजय:

    अमित का कहना हैं , अलग अलग धर्म अलग अलग जगह बने थे, पर भाई मेरे, धर्म प्रवर्तको का दावा हैं कि या तो वे सर्वज्ञ थे (महावीर, बुद्ध) या उन्हे सीधे परमात्मा से संदेश प्राप्त हुआ था (मोहम्मद, ईशु) दोनो स्थितियों में अनभिज्ञता का कोई कारण नही रह जाता.

    संजय भाई, यह तो लकीर के फ़कीर वाली बात हो गई!! 😉 अरे भई, आँख मूंद ऐसी बातों को मान लेना जिनको मानने के लिए बुद्धि तैयार नहीं हो, अन्धविश्वास उसी को कहते हैं। 🙂

    इन्ही सर्वज्ञो के ग्रंथो में लिखी बात जब विज्ञान कि कसौटी पर खरी नहीं उतरी तो सोक्रेटेस जैसो को ज़हर दे दिया गया.

    वो तो केवल एक उदाहरण है, इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। क्रूसेड में कटे थे हज़ारों लाखों लोग, “हन्ड्रेड ईअर वार” में कितने कटे होंगे, इसका अनुमान लगाओ। वे किसलिए मरे? अपने राजे-महाराजों की बर्बर मानसिकता और सनक के कारण जो कहती थी कि जो उनके धर्म को स्वीकार न करे उसका नाश कर दो!!

    इसी प्रकार कैसे माने मदर मेरी कुंवारी थी या हनुमान ने सूर्य को निगल लिया था.

    उसी प्रकार जिस तरह रामायण और महाभारत के वास्तव में होने पर विश्वास है!! 😉 अरे भई कौन कहता है कि मानो? यदि मन करता है कि मानो तो मानो अन्यथा मत मानो। 🙂

    @प्रतीक:

    और अगर वाल्मीकि रामायण को उपन्यास की तरह लिखा गया होता, तो लगभग समान घटनाक्रम कम्ब रामायण, अध्यात्म रामायण, वाल्मीकि रामायण की ही तरह प्राचीन तमिळ रामायण व अन्य कई रामायणों और बहुत से दूसरे ग्रन्थों जैसे अग्नि पुराण वगैरह में कैसे मिलता?

    ड्रैकुला के बारे में ब्रैम स्टोकर ने लिखा, फ़िर उसी किरदार का ज़िक्र बहुत से अन्य उपन्यासों आदि में भी हुआ। जेम्स बांड की रचना ईअन फ़्लैमिंग ने की, पर यह किरदार भी बहुत से अन्य उपन्यासों में घुसपैठ किए हुए है जिन्हें अन्य उपन्यासकारों ने लिखा। भई किसी किरदार या घटनाक्रम का किसी अन्य लेखन में उपस्थित होना उस किरदार की वास्तविक जीवन में उपस्थिति का प्रमाण नहीं है। और उस समय तो कॉपीराईट आदि जैसी कोई चीज़ भी नहीं होती थी, इसलिए एक लेखन के लगभग पूरे घटनाक्रम ज्यों का त्यों दूसरे लेखन में मिलने पर कोई पाबंदी भी नहीं थी, कम से कम ऐसा कहीं पढ़ा तो नहीं!! 😉

  15. धर्म क्या है/था? क्या सही है/था धर्म की कहानीयो में? अच्छी गुफ्तगु है।
    ……और मुझे लगा था अनुगूंज का विषय है “मेरे जीवन में धर्म का महत्व”।

  16. अमित भाई, यह बात बिल्कुल सही है कि गौतम बुद्ध का कोई गुरू नहीं था। चाहें तो आप मान सकते हैं कि उन्हें ज्ञान बोधिवृक्ष पर लटकता हुआ मिला। 🙂 क्योंकि बुद्ध ने ईश्वर की सत्ता को ही नकारा है, चाहें तो प्रमाणस्वरूप ‘त्रिपिटक’ देख कर इस बात की पुष्टि की जा सकती है। इसलिए यह कहना भी ग़लत है कि भगवान उनके गुरू हुए।

    क़ुरआन में क़ई जगहों पर काफ़िरों को मारने का हुक़्म दिया गया है। यही नहीं, बल्कि काफ़िरों का क़त्ल करना जन्नत पाने का सबसे विश्वस्त रास्ता बताया गया है। ये रहीं हिन्दी में अनुदित क़ुरान की कुछ आयतें :

    ”अल्लाह के रास्ते पर लड़ो काफ़िरों से। मार डालो तुम उनको जहाँ पाओ, क़तल से कुफ़्र बुरा है।। यहाँ तक उनसे लड़ो कि कुफ़्र न रहे और होवे दीन अल्लाह का।। जितनी हो सके उन पर ज़्यादती करो।।” मं. 1 । सि. 2 । सू. 2 । आयत 190, 191, 193, 194

    ”वह काफ़िरों के खिलाफ़ मदद करता है। अल्लाह तुम्हारा बढिया मददगार और कारसाज है।। जो तुम काफ़िरों के खिलाफ़ लड़ाई में मारे जाओ या मर जाओ, अल्लाह की दया पाओगे।।” मं. 1 । सि. 4 । सू. 3 । आयत 147, 150, 157

    मैं इस्लाम के विरूद्ध नहीं हूँ और न ही उसकी निन्दा कर रहा हूँ। इस्लाम में समानता आदि कई बहुत श्रेष्ठ बातें भी हैं, लेकिन मैं यहाँ बस सच्चाई बयान कर रहा हूँ। जो कहते हैं कि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है, उनसे निवेदन है कि कृपया क़ुरआन की एक प्रति ख़रीद कर लाएँ और यथोचित् अध्ययन करें। यहाँ केवल कुछ आयतें उद्धृत की गयी हैं, क़ुरआन में आपको इस तरह की कई आयतें मिलेंगी।

    आपकी ड्रैकूला वाली बात भी ठीक ही है, लेकिन फिर इस तर्क पर आगे बढ़ने से किसी भी व्यक्ति या घटना को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। आपने एक जगह (शायद किसी दूसरे ब्लॉग में टिप्पणी के रूप में) कहा है कि रामायण, वाल्मीकि नहीं, लेकिन तुलसीदास का अस्तित्व प्रामाणिक है। वे अकबर के काल में थे। तो आपने यह कैसे जाना; बस कुछ किताबों में ऐसा लिखा है, इसी से न। लेकिन हो सकता है कि ड्रेकुला की ही तरह उनका भी बार-बार वर्णन किया गया हो। 🙂

  17. अमित भाई, यह बात बिल्कुल सही है कि गौतम बुद्ध का कोई गुरू नहीं था। चाहें तो आप मान सकते हैं कि उन्हें ज्ञान बोधिवृक्ष पर लटकता हुआ मिला। क्योंकि बुद्ध ने ईश्वर की सत्ता को ही नकारा है, चाहें तो प्रमाणस्वरूप ‘त्रिपिटक’ देख कर इस बात की पुष्टि की जा सकती है। इसलिए यह कहना भी ग़लत है कि भगवान उनके गुरू हुए।

    यार पता नहीं मेरा दिमाग कहाँ था जब मैं यह लिख रहा था, यह तो भूल ही गया कि बौद्ध धर्म ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता!! 😉

    मैं इस्लाम के विरूद्ध नहीं हूँ और न ही उसकी निन्दा कर रहा हूँ। इस्लाम में समानता आदि कई बहुत श्रेष्ठ बातें भी हैं, लेकिन मैं यहाँ बस सच्चाई बयान कर रहा हूँ। जो कहते हैं कि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है, उनसे निवेदन है कि कृपया क़ुरआन की एक प्रति ख़रीद कर लाएँ और यथोचित् अध्ययन करें। यहाँ केवल कुछ आयतें उद्धृत की गयी हैं, क़ुरआन में आपको इस तरह की कई आयतें मिलेंगी।

    अब तो क़ुरान खरीद कर पढ़नी ही पड़ेगी!! 🙂

    आपने एक जगह (शायद किसी दूसरे ब्लॉग में टिप्पणी के रूप में) कहा है कि रामायण, वाल्मीकि नहीं, लेकिन तुलसीदास का अस्तित्व प्रामाणिक है। वे अकबर के काल में थे। तो आपने यह कैसे जाना; बस कुछ किताबों में ऐसा लिखा है, इसी से न। लेकिन हो सकता है कि ड्रेकुला की ही तरह उनका भी बार-बार वर्णन किया गया हो।

    हाँ, तो यह भी हो सकता है कि अक़बर नाम का कोई मुग़ल बादशाह ही नहीं था, उसके बारे में सब कुछ fabricate किया हुआ है, नहीं? 😉 भई हमने उन्हें नहीं देखा, परन्तु इतिहास मिथक कथाओं आदि पर नहीं वरन् ठोस प्रमाणों पर टिका हुआ है। जो प्रमाण मिलते हैं उसी से इतिहास में घटी घटनाओं आदि को समय के धागे में पिरोया जाता है। 100% यकीन के साथ तो नहीं कह सकता परन्तु पढ़ा किसी इतिहास की पुस्तक में ही था तुलसीदास के अस्तित्व के बारे में।

  18. अमित भाई, इतिहास का एक बहुत बड़ा भाग मिथकों और अपुष्ट तथ्यों पर ही टिका हुआ है। इतिहास का ज़रा-सा अवलोकन ही इस बात को स्पष्ट कर सकता है। इसलिये रामायण आदि प्राचीन ग्रन्थों को भी उसी श्रेणी में रखना होगा, जिसमें अपुष्ट घटनाओं को इतिहास के रूप में रखा गया है। लेकिन अब यहाँ और ज़्यादा चर्चा की तो जीतू भाई कहेंगे कि उनके ब्लॉग को लोगों ने डिस्कशन फ़ोरम समझ रखा है। 🙂 इसलिये इस पर बात कहीं और… फिर कभी… वैसे भी यहाँ चर्चा का विषय धर्म है, न‍ कि इतिहास।

  19. हिन्‍दुत्‍व अथवा हिन्‍दू धर्म
    हिन्‍दुत्‍व एक जीवन पद्धति अथवा जीवन दर्शन है जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को परम लक्ष्‍य मानकर व्‍यक्ति या समाज को नैतिक, भौतिक, मानसि‍क, एवं आध्‍यात्मिक उन्‍नति के अवसर प्रदान करता है। आज हम जिस संस्‍कृति को हिन्‍दू संस्‍कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय या भारतीय मूल के लोग सनातन धर्म या शाश्‍वत नियम कहते हैं वह उस मजहब से बड़ा सिद्धान्‍त है जिसे पश्चिम के लोग समझते हैं।
    अधिक के लिये देखियेः
    चिठ्ठाजगत में स्वागतम्

  20. अजीत कुमार मिश्रा on सितम्बर 19th, 2006 at 11:03 am

    यह सही है कि ग्रंथ क्लिष्ठ भाषा में लिखे गये और उसमें विरोधाभास भी है परन्तु यदि कोई धर्म की आलोचना करे और दूसरा यह बर्दाश्त न करें तो इसमे उस व्यक्ति की सहनशीलता और जानकारी की कमी है न कि धर्म की. यदि हिन्दू (सनातन) धर्म की कमी होती तो यह कब का मिट गया होता। हाँ यह सच है कि हम आज धर्म के प्रति उदासीन जरूर हो गये हैं।

  21. आपके धर्म के प्रति विचार सुनकर मेरा मन अत्यधिक मोहित हुआ है.
    में आपके आचार विचारों की सराहना करता हूँ.
    ऐसे ही अपने विचारों का आदान प्रदान करते रहिएगा.

    धन्यवाद
    आपका अपना
    पाठक
    योगेश चन्द्र उप्रेती