अथ श्री महाब्लॉगर व्यथा कथा

ये लेख समर्पित है भाई अतुल अरोरा को, जो इस लेख का बहुत बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे।

अपनी पिछली कई भारत यात्राओ मे हमने अनूप शुक्ला उर्फ़ शुकुल उर्फ़ फुरसतिया जी से मिलने की कई बार असफ़ल कोशिश की, लेकिन हर बार फुरसतिया कोई ना कोई बहाना टिका जाते थे।अब फुरसतिया इसका इल्जाम हमारे सर पर डालने का भरकस प्रयास करेंगे।खैर ये तो उनकी पुरानी आदत है। तो जनाब इस बार हम पक्का ठान चुके थे, कि इस बार तो फुरसतिया को मिल कर ही आयेंगे, लेकिन फुरसतिया पता नही क्या ठाने थे। तो जनाब पेश है महाब्लागर (ये फुरसतिया के लिए) व्यथा(ये मेरे लिए है) कथा।

हमने कानपुर पहुँचकर फुरसतिया को फुनिआया, लेकिन फुरसतिया जी नही मिलने थे तो नही मिले।खैर हमने उनका मोबाइल ट्राई मारा, जो हमेशा की तरह “ऑफ” था, पता नही लोग मोबाइल काहे रखते है? जब आन नही करना होता तो। बेहतर है, बन्दो को नम्बर ही ना दें। हम भारी मन से इन्टरनैट पर फुरसतिया के उदय होने का इन्तजार करते रहे, लेकिन ज्यादा इन्तज़ार नही करना पड़ा। फुरसतिया रात होते ही इन्टरनैट पर टिनटिनियाने लगते है। अब रात को ही काहे…इसमे भी एक राज है, इसका खुलासा फुरसतिया ने ही किया था कि रात को ही अमरीकन कन्याएं आनलाइन होती है, और फिर घर पर भी तो रात मे ही सन्नाटा होता है (भाभी जी, आप सुन रही है ना?)

तो जनाब रात को फुरसतिया आनलाइनिए, हम पूछे, कब मिल रहे हो?, तो जम्हाते हुए बोले, कल मिल लेते है। हमने फिर समय का पक्का करना चाहा तो बोले, अभी नही कर सकते, दो ठो अमरीकन कन्याओं से बतिया रहे है, कल सुबह फोन करेंगे। अब इम्पोर्टट आइटम का मामला ना होता तो हम फुरसतिया तो उसी समय सुना देते, लेकिन हम भी सोचे चलो, बुजुर्ग है, अब नही मौज करेगा तो कब करेगा,करने दो मौज।खैर सुबह सुबह मिलने की बात तय हुई, ठग्गू के लड्डू की दुकान के बाहर, ठीक दस बजे। हमारी इच्छा हुई थी, कि पूछ लें, दस बजे कौन सा समय, भारतीय समयानुसार या कुछ और। हम यहाँ पर एक बात क्लियर कर दें, कि विदेश जाकर हम भी टाइम का बहुत ध्यान ध्यून रखने लगे है। दस बजे तो मतलब नौ बजकर सत्तावन मिनट। हम सोचे तीन मिनट पहले पहुँचकर जगह साफ़ सूफ़ करके,बोरा बिछाकर घेरी जाए। हम पहुँचे, गाड़ी से उतरकर देखा तो कंही भी दूर दूर तक फुरसतिया नाम के प्राणी नजर नही आए।हम कुछ देर खड़े रहकर इन्तजार करते रहे।दुकानदार भी पुरानी पहचान वाला मिला।अपने बऊवा के गाँव का ही रहने वाला था, हमने उससे बऊवा की कुशलक्षेम पूछी, उसने हमसे छूटते ही पहला प्रश्न पूछा “आप जैसे संभ्रान्त(?) व्यक्ति बऊवा जैसे टुच्चे व्यक्ति को कैसे जानते हो?” ध्यान रहे बऊवा का चाल-चलन और रहन सहन शराफत के दायरे मे नही आता (नये लोग बऊवा को यहाँ और यहाँ मिल सकते है।) खैर हमने जैसे तैसे करके उसको समझाया कि हम वर्मा जी को जानते है, बऊवा को नही, तब जाकर उसने हमे स्टूल पर बैठने दिया (पहले तो उसने बऊवा का नाम सुनकर स्टूल ही खिसका लिया था)
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इधर हम दुकानदार से उसकी दुकान का इतिहास झेल रहे थे, काहे? (उसने चाय पिलायी थी, हर्जाना तो भुगतना ही था) इधर चाय भी खत्म हो गयी और दुकानदार तब भी झिलाए पड़ा था और फुरसतिया, वो तो दूर दूर तक नदारद थे। दुकानदार ने पूछा कित्ते बजे का टाइम रख्खा था? हम बोले दस बजे का, घड़ी मे देखा तो साढे दस बज चुके थे, दुकानदार घड़ी देखते देखते बोला, साहब जल्दी आ गये हो, कानपुर का दस बजे तो साढे ग्यारह बजे होता है। हम हैरान परेशान, एक तरफ़ फुरसतिया पर गुस्सा आ रहा था और अब दुकानदार भी झिलाऊ बाते कर रहा था। दुकानदार ने हमे बताया कि हमारी एक और दुकान मॉलरोड पर है, शायद वहाँ पर फुरसतिया ना बैठे हो।उसने टेलीफोन मिलाने की कोशिश की, लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, नही मिला। हमने ड्राइवर को मॉलरोड दुकान पर चक्कर लगाने का निर्देश दिया। उस दुकान पर भी हम बहुत देर इन्तजार करते रहे, आखिरकार हमने निश्चय किया कि, चलो, अब फिर से परेड वाली दुकान पर नजर दौड़ा लें और नही तो फिर वापसी का रास्ता पकड़े। इस बीच फुरसतिया का सो काल्ड मोबाइल, हमेशा की तरह आउट आफ कवरेज एरिया मे था। पता नही काहे मोबाइल लिए है, अमां यार फुरसतिया, इस मोबाइल को बेच बाच कर और जो पैसे मिले उनमे थोड़े से पैसे मिलाकर दो खाली डब्बे पान पराग के खरीद लो, धागा तो कंही ना कंही से जुगाड़ कर ही लोगे। फिर आराम से खेलना मोबाइल मोबाइल। ना रिंगटोन का चक्कर ना कवरेज एरिया का।

हमने फिर फुरसतिया के घर फोन मिलाया तो पता चला कि साहब अभी थोड़ी देर(दस मिनट) पहले घर से निकले है, गुस्सा तो बहुत आयी, लेकिन अब बच्चे को क्या बोलें, हम इन्तजार करते रहे। लगभग आधे घन्टे तक इन्तजार करने के बाद, हमारे सब्र का बान्ध टूट गया और हमने दुकानदार की तरफ़ बाय का इस्माइल उछाला, फिर फुरसतिया के घर फोन किया और बताया कि अब हम लौट रहे है।अपना नम्बर दोबारा बच्चे को दिया और समझाया कि बेटा पापा को ढूंढो और जहाँ पकड़ में आए तो उनको हमारा मोबाइल नम्बर दे देना, क्योंकि बाद मे गलत नम्बर का बहाना ना बनाया जाए।फिर हम बड़े भारी मन से वापस लाल बंगले की ओर निकल लिए।लगभग आधे रास्ते (कैन्ट) तक पहुँचे तो फुरसतिया फोन पर प्रकट हुए, पता नही कहाँ से फोन मिलाया, बोले जहाँ हो वही रूक जाओ, नही तो तुम्हारे जन्मदिन पर ऐसा लेख लिखेगे कि कोई तुम्हारे ब्लॉग पर फटकेगा भी नही। अब बताइए, एक शरीफ़ आदमी के साथ ऐसी गुन्डागर्दी होगी तो वो क्या करेंगा।अगला आदेश मिला कि मॉलरोड के पास मरे कम्पनी (अब हमसे मत पूछना कि कम्पनी मरी कैसे?) मे पन्डित उपवन रेस्टोरेन्ट पर पहुँचकर हमारा इन्तजार किया जाए। हमको ऐसा लगा जैसे हम फिरौती की रकम लेकर पकड़ छुड़ाने आए है और फुरसतिया मोबाइल पर अपहर्ता की तरह से निर्देश दिए जा रहे है। मरता क्या ना करता, हम चुपचाप पन्डित उपवन पहुँचे और ‘इकलौती साफ़ सुथरी’ सीट पर फैल गए और फुरसतिया का इन्तजार करने लगे।

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कुछ समय बाद फुरसतिया साक्षात प्रकट हुए और सामने वाली सीट पर विराजमान हुए। हमने गले मिलने की असफल कोशिश की, क्योंकि दोनो की तोन्द आड़े आ रही थी, कई रीटेक के बाद जाकर गले मिल सके। खैर फुरसतिया ने वार्ता शुरु की।इसके पहले कि हम गरिआए, फुरसतिया ने हमारे ऊपर ही शब्द बाणों से अटैक कर दिया( हमको हमारे मास्टर बद्रीनाथ की “अटैक इज द बैस्ट डिफ़ेन्स” वाला पाठ याद आया) शुकुल बोले, घर से निकलने से पहले फोन करने की बात तय हुई थी(ये अचानक पैंतरा बदलेंगे हमे ऐसी उम्मीद ना थी), हमने समझाया भैय्ये इत्ते दिनो से सिर्फ़ मिलने का टाइम ही तो सैट हो रहा था, जब टाइम सैट हो गया तो फिर काहे की फोना फोनी? फुरसतिया को तो हमारा गुस्सा हरना था, वो हर चुके थे, मामला डिस्प्यूटेड हो गया था, इसलिए हमने और समय व्यर्थ ना करते हुए, बातचीत को आगे बढाया।नाहर साहब की बात पर चर्चा हुई, हमने समझाया कि जल्दी ही वो ब्लॉगिंग पर वापस लौटेंगे, हमारी बात नही टालेंगे। इधर ईस्वामी के प्रति हम लोगों ने थोड़ी बुराई बुराई खेली। अतुल को ब्लॉगिंग ना करने के लिए लानतें भेजी गयी।देबू के बारे मे बात हुई।बाकी सारे नये चिट्ठाकारों के बारे मे जानकारी शेयर की गयी।हाँ महाब्लॉग (सीक्रेट प्रोजेक्ट) पर भी डिसकशन हुआ, जिसका खुलासा हम यहाँ नही कर सकते, नही तो बाकी लोग गरियाएंगे।इस तरह से ब्लॉगर मीट का अघोषित एजेन्डा आगे बढा।

हमने फुरसतिया से पिछले साल भर के गिले शिकवे, कानपुरिया इश्टाइल (गाली गलौच, और क्या?) मे पूरे किए, हम लोग ऐसे ही हिसाब किताब क्लियर करते है।गाली गलौच का लेखा जोखा हम यहाँ देंगे तो दिक्कत हो जाएगी आप अपने आप कल्पना कर लीजिए।हमने उनको असफल कविता(जानबूझ कर बोला, अगर तारीफ़ करते तो यहीं पर कविता पाठ शुरु करके झिला देता) लिखने के लिये उलाहने दी और कहा कि वापस गद्य की तरफ़ लौटो, दुनिया इन्तजार कर रही है।फुरसतिया ने सुनकर भी अनसुना कर दिया।हम लोगों ने चाय का आर्डर किया, शक्ल से हमे फुरसतिया सुबह से भूखा दिख रहा था, सो हमने कचौड़ी के लिये भी कह दिया, लेकिन औपचारिकतावश शुकुल ने सिर्फ़ एक टुकड़ा ही खाया, बाकी हमारे पेट की साइज को देखते हुए, हमारे लिए छोड़ दिया गया।अब जरुरत आन पड़ी फोटो खींचने की, एक बैरे को पकड़ा गया, वो शायद पैदायशी फोटोग्राफर था, तरह तरह की शकले बना बना,लोट-पोट होकर फोटो खींच रहा था, जब तक हम लोग उसके मन मुताबिक सैट नही होते थे, वो फोटो नही खींचता था, शायद इसीलिए, बहुत कम ही फोटो खींची गयी।तब तक काउन्टर पर बैठे उसके मालिक की नजर भी बैरे पर पड़ गयी, उसे लगा कि कंही बैरा जॉब ना बदल ले, इसीलिए उसको दूसरी सीट पर सर्विस के लिए भेज दिया।

इधर वार्ता चल रही थी, उधर घड़ी भी तेजी से आगे बढ रही थी, हमको बारह बजे एक दोस्त के यहाँ पहुँचना था। आधे घन्टे तक चाय कचौड़ी उदरस्थ करते करते इधर उधर की बाते करते हुए, वार्ता अपने अंतिम चरण तक पहुँची, हमने वार्ता को समाप्त करने का निर्णय लिया। फिर से हमने गले मिलने की कुछ कुछ सफ़ल कोशिश की, हालांकि इसके लिये सांस रोककर पेट को अन्दर करना पड़ा। हम दोनो ने एक दूसरे से विदा ली और इस तरह से हमारी महा ब्लॉगर भेंटवार्ता सम्पन्न हुई।वार्ता का विस्तृत विवरण आपको फुरसतिया के ब्लॉग पर भी मिल जाएगा, उसे जरुर पढे।

बाकी से सारे फोटोग्राफ़ (थोड़े से ही है) हमारी फोटो गैलरी पर देखें।

11 Responses to “अथ श्री महाब्लॉगर व्यथा कथा”

  1. लगता है, मैं भी जीतू भाई से सहमत हूँ शायद इसी का असर था कि मेरे अवचेतन मन ने कानपुर मे होते हुए भी (७ जुलाई, १० जुलाई) फ़ुरसतिया जी से मिलने की याद तक नही दिलायी।

    उम्मीद है फ़ुरसतिया जी इसे अन्यथा नहीं लेंगे।

  2. व्यथा कथा से व्यथा टपक रही है. अब किसकी ये न पूछें

  3. ब्लॉगर हो तो फुरसतियाजी की तरह कि फुरसत मे वोह लम्बे लेख पोस्ट करते हैं 😉 आखिरकार फुरसतियाजी ने जीतू भैया के लिए फुरसत निकाल ही ली 🙂

  4. लेख के लिये धन्यवाद जीतू भाई।
    यह मरे कंपनी शायद Murrey and company है। अँग्रेजों के जमाने में मालरोड पर थी यह दुकान। तब भूरी चमड़ी वाले उधर नही जा सकते थे। आजादी के आसपास साहब ने अपनी दुकान किसी कनपुरिया को बेच दी थी। बिगड़ते बिगड़ते Murrey and company मरी कंपनी बन गयी।
    आपके लेख से दो दो नई जानकारियाँ मिली। पहली यह कि ठग्गू की एक से ज्यादा दुकानें हो गईं। दूसरी यह अपने फुरसितया जी आनलाईन चैटिंग पर क्या करते रहते हैं? वैसे मरी कंपनी के बारे में ज्यादा जानकारी के लिये फूलबाग के म्यूजियम में खाक छानने से पता चल सकता है। फुरसतिया जी क्या विचार है, मरी कंपनी, कंपनी बाग, नानराव पेशवा वगैरह का इतिहास लाने के लिये क्या किया जा सकता है?

  5. इसके जवाब में तो पोस्ट का मसाला है लेकिन सस्ते में निपटने का लालच है सो टिप्पणी से काम चलाओ:-
    हमें आज तक यह नहीं समझ में आया कि परदेश जाकर जीतेंदर जैसे कनपुरिया लौंडे तक बौरा जाते हैं या फिर अकल गिरवी रखकर आते हैं पासपोर्ट वीसा के चक्कर में! अपने शहर के संकेत चिन्ह बिसरा देते हैं। अरे भाई जब ठग्गू के लड्डू की दुकान में बुलाया था तो वहाँ का प्रोटोकाल तो निभाना पड़ेगा कि नहीं जहाँ लिखा है-ऐसा कोई सगा नहीं ,जिसको हमने ठगा नहीं!सो थोड़ा तो झेलना पड़ेगा भाई! दूसरा रही बात घड़ी की तो बता दें कि घड़ी हमने आज से पंद्रह साल पहले बांधना छोड़ दिया था जब देश में आउटसोर्सिंग की हवा तक नहीं चली थी और अब हम सारा काम कैलेंडर के हिसाब से करते हैं।
    मोबाइल का भी कुछ ऐसा ही है।हमने शुरू से ही यह मानना है कि मोबाइल हमारी सुविधा के लिये है,हम मोबाइल की सुविधा
    के लिये नहीं हैं। तो उसे तभी लिफ्ट मिलती है जब हम चाहते हैं।बकिया अमेरिकन बालाओं के बारे में क्या कहें? बात बहुत दिन से बंद है लेकिन इस मामले में बालायें हमेशा(चाहें
    अमेरिकन काहे न हो)बेहतर दोस्त होती हैं कि कभी भी वे टिप्पणी के लिये जिद नहीं करतीं न ही कभी कहती हैं कि हमारा
    भी परिचय लिखो। बर्थडे के बारे में डरो मत बबुआ,कुछ नहीं लिखेंगे इस बार। तमाम बातों के अलावा सच यह है कि दुकानदार बता रहा था कि जब से बबुआ इनके चक्कर में पड़ा है,
    बरबाद हो गया है।

  6. कुछ जगह तो बेइंतिहा हंसी आई, आप लोग भी क्या बम पटाखा सब लिख देते हो यार। हंसा हंसा के मार डालोगे किसी दिन।

  7. बहुत खूब लिखा जीतू भाई !

  8. …अब जरुरत आन पड़ी फोटो खींचने की, एक बैरे को पकड़ा गया, वो शायद पैदायशी फोटोग्राफर था, तरह तरह की शकले बना बना,लोट-पोट होकर फोटो खींच रहा था, जब तक हम लोग उसके मन मुताबिक सैट नही होते थे, वो फोटो नही खींचता था, शायद इसीलिए, बहुत कम ही फोटो खींची गयी।तब तक काउन्टर पर बैठे उसके मालिक की नजर भी बैरे पर पड़ गयी, उसे लगा कि कंही बैरा जॉब ना बदल ले, इसीलिए उसको दूसरी सीट पर सर्विस के लिए भेज दिया।….

    मालिक को सही शक हुआ था. थोड़ी देर और होती तो बैरा भी हिन्दी चिट्ठाकार बन बैठता और अपनी चिट्ठे की दुकान लगा लेता 🙂

    मिर्जा के दोस्त का आख्यान बहुत दिन बाद पढ़ा, मजा आया.

  9. “…वाह कितना अच्छा लेख है”

    “..अरे! आप कितना सरस लिखते हैं…”

    “..पढकर लग रहा था कि हम भी आप दोनो के साथ ही ठग्गु की दुकान में बैठे हैं..”

    “..पढ कर इतनी हँसी आई कि क्या कहें..”

    “…फ़ोटो भी बिल्कुल प्रोफ़ेश्नल फ़ोटोग्राफ़र की तरह के खींचे हुये हैं…”

    “..इतना सब कैसे कर लेते हैं आप.?? …”

    — बस्स्स!!!??!!

    (जरुरत पडने पर ब्लाग पर कमेंट भी करना पडता है)
    काली चिठ्ठी टिप्पणी – (अंग्रेजी में पढें)

  10. फुरसतिया ने तो कनपुरिया दाँव मारा यह कहकर कि चलने से पहले फुनियाने का तय हुआ था. हम चकित हैँ कि जीतू भैया इतने बडे एन आर आई हो गये कि ये सब हथकन्डे भूल गये!

  11. छह साल बाद ये किस्सा फ़िर से पढ़ा आज! मजे आ गये। 🙂