जरा देखना तो, 272 हुए क्या?

आज यूपीए और विपक्षी पार्टियों की हालत कुछ इस कदर हो गयी है, उठते बैठते लोग एक दूसरे से यही सवाल पूछते है जरा देखना तो, 272 सांसद हुए क्या? अब क्या करें भई, ये 272 का आंकड़ा है ही इत्ता मुश्किल। चार को साधो तो दो और उखड़ जाते है, तीन को पकड़कर नजरबंद करो तो तीन और बहनजी के पीछे खड़े मिलते है। कुल मिलाकर जबरदस्त ऊंहापोह की स्थिति है, पक्ष हो या विपक्ष किसी को भी नही पता कि कुल कितने सांसद उसके साथ है। दूसरी पार्टीयों की तो छोड़ो, कुल मिलाकर अपनी पार्टी के बन्दे ही पार्टी-लाइन पर वोटिंग करे, इसकी भी कोई गारंटी नही है। कोई गारंटी दे भी नही सकता, नेता कौम ही ऐसी होती है।

अब आप कहेंगे कि इस लेख का शीर्षक हमने ऐसे क्यों रखा। चलिए इसी बात पर हमे अपने बचपन की  एक बात बताते है। बचपन मे कानपुर मे टीवी लखनऊ दूरदर्शन के द्वारा आया करता था। जब तक टीवी सही चलता तब तक तो सब ठीक ठाक ही रहता, लेकिन जैसे ही कोई अंधड़/तूफान वगैरहा आता तो एंटीना का रुख बिगड़ जाता, नतीजतन टीवी पर सिर्फ़ मच्छर ही दिखाई देते। तब घर की टास्क फोर्स एक्शन मे होती, ठीक उसी तरह जैसे यूपीए की टास्कफ़ोर्स एक्शन मे है। घर के सबसे मजबूत बन्दे को, ऊपर एटीना घुमाने के लिए लगाया जाता, फिर छत पर एक बन्दा उससे कम्यूनिकेशन करता, सीढी मे भी एक बन्दा होता, घर के अन्दर आंगन मे एक बन्दा खड़ा रहता और एक ठीक टीवी के सामने खड़ा रहता, फुल वाल्यूम के साथ। कुल मिलाकर पूरा परिवार क्राइसिस मैनेजमेंट करता, अगर कोई मेहमान भी आया हुआ होता तो वो भी यथासम्भव इस काम मे हाथ बँटाता। ऊपर से हाँक लगायी जाती जरा देखना, दूरदर्शन आया क्या, हाँक छत वाले बन्दे से, सीढी वाले बन्दे तक पहुँचती वहाँ से आंगन वाले से होते हुए, कमरे वाले बन्दे तक आवाज पहुँचती, जहाँ से वो हाँ या ना कहता और वापस कम्यूनिकेशन ऊपर वाले तक उसी तरीके से पहुँचता। एंटीना घुमाने मे कभी कभी तो चैनल (तब एक ही तो था यार!) की पिक्चर आ जाती, कभी आवाज, कभी दोनो गायब हो जाते। ठीक उसी तरह जैसे आगे की लाइन वाले, दस सांसदों को साधो तो पिछली पंक्ति वाले तीन सांसद गायब हो जाते है। कुछ ऐसी ही स्थिति भी यूपीए सरकार की है, इनका एंटीना हिल गया है। आइए जरा सभी दलों की स्थिति पर नजर घुमा ली जाए।

सबसे बड़ा रिस्क लिया है, समाजवादी पार्टी ने। क्यों? अव्वल उसके मतदाताओ मे मुसलमान वोटर काफी संख्या मे है। इस न्यूक्लियर डील से किसी को कुछ लेना देना हो या नही, लेकिन मुसलमान बुश और उसके अमरीका से बुरी तरह से खफ़ा है। लेकिन वो कहते है ना, अपने हित के आगे दूसरों का हित कौन देखे। मायावती ने मुलायम की नाक मे दम कर रखा है (इन लोगो ने भी मायावती को फूल मालाए थोड़ी पहनायीं थी, जो बोएंगे वही तो काटेंगे) । इस स्थिति मे मुलायम सिंह कांग्रेस और मायावती से दोतरफ़ा मोर्चा नही खोल सकते, इसलिए माया के कहर से बचने के लिए, दूरगामी सोच के तहत कांग्रेस से दोस्ती (अस्थायी ही सही) की गयी। मतदाताओं का विश्वास गया तेल लेने, अपने आप को बचा लें, तभी तो मतदाताओं का सोचेंगे।

उधर कांग्रेस भी बेचारी क्या करे, परमाणु करार की सारी तैयारी तो बहुत पहले ही हो चुकी थी, उसको अमली जामा तक पहनाया जा चुका था, बुश अंकल भी जाते जाते इस पर मोहर लगाकर जाना चाहते है। मनमोहन सिंह तो पहले ही जिद पकड़ चुके है, करार नही तो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे देंगे। कांग्रेस के पास वैसे भी ज्यादा कुछ दिखाने को है नही, 9% ग्रोथ रेट की ऐसी हवा निकली है जैसे इंडिया शाइनिंग की निकली थी। फिर एक एक करके सारे राज्य भी हाथ से निकले जा रहे है। महंगाई इत्ती बढ गयी है (दो दिनो मे प्रति सांसद 30 करोड़ से 80 करोड़ का रेट हो गया है, आप ही बताइए महंगाई बढी है कि नही?) कि महंगाई का सूचकांक ही ग्रोथ रेट से ऊपर निकल गया है। अब कुछ बचा सकता है तो सिर्फ़ परमाणु करार ही है, जिसके सहारे अगले चुनाव मे नैया पार लगने की उम्मीद है।

लेफ़्ट वाले भी बेचारे क्या करें। इत्ती बार गरज गरज कर आखिर कभी तो बरसना ही था। वैसे भी लेफ़्ट वालों ने अपना रिकार्ड बना रखा है किसी भी सरकार को पाँच साल सपोर्ट ना देने का, उसको थोड़े ही खराब करना था। प्रकाश करात की स्थिति भी अजीब सी है, अगर ये अकेले होते तो ठीक था, शाम को वृंदा करात दिन भर की रंनिंग कमेंट्री  और रात को ए बी वर्धन के अनमोल वचन कान मे पड़ते ही सुबह फिर से सरकार गिराने का दम भरना पड़ता है। अब समर्थन वापस लेना तो चलो एक राजनैतिक कदम था, लेकिन सरकार गिराने की बात किसी के पल्ले नही पड़ रही है। कंही ना कंही चीनी कामरेडों की बुद्दि काम जरुर कर रही है।

रही बीजेपी, राजनाथ सिंह पिछली सफ़लताओं से फूले नही समा रहे। वैसे तो बीजेपी को इस समय आगे आकर सरकार को सहारा देकर एक नयी मिसाल कायम करनी थी। लेकिन बीजेपी के अनुसार, इस समय अगर चुनाव हो जाते है तो उसके पास बहुमत आने के चांसेस ज्यादा है। सही भी है, सपने देखने के लिए किसी पर रोक थोड़े ही है। बीजेपी के साथी अभी तक तो उसके साथ ही दिखाई देते है, लेकिन कौन कब हाथ से निकल जाए, पता चलता है क्या? टीडीपी वाले कब तम्बू से बाहर निकल गए, कोई रोक सका क्या? अकाली दल भी सोच विचार कर रहा है कि सरदार जी के खिलाफ़ जाएं कि नही। शिवसेना भी अपना मन पक्का करने मे लगी हुई है।

अब बहनजी यानि मायावती के बारे बात कही करेंगे तो वो भी रुठ जाएंगी। बहनजी का कहना है कि सीबीआई उनको झूठे मुकदमे मे फंसा रही है ( वैसे भी नेताओं के तो हजार पाप माफ़ होते है) , इसलिए वो खुद प्रधानमंत्री बनकर मुकदमे को रफ़ा दफा कराएंगी। यूएनपीए भी क्या करें, ले देकर सपा ही सबसे बड़ी पार्टी थी, वो निकल गयी तो यूएनपीए बैठ गया। बाकी बचे टीडीपी, चौटाला और इक्का दुक्का लोग। सभी फुंके हुए कारतूस ही है। सपा निकल गयी तो उनको अपनी साख तो बचानी ही थी। इसलिए मायवती का दामन थामने मे ही भलाई दिखी। मायावती भी ये मौका काहे छोड़ें, सपा से कुछ लोग तो टूट ही जाएंगे (यकीन मानिए डूबते जहाज को सबसे पहले चूहे ही छोड़ते है।) जित्ते आएं उतने अच्छा। मायावती जानती है, अधिकतर सांसद चुनाव नही चाहते, उनकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर, कुछ समय के लिए ही सही, प्रधानमंत्री पद मिले तो क्या बुरा है। हम फिर कहेंगे, सपना देखने के लिए कोई मनाही थोड़े ही है। आप भी देखो, हम भी देखे, उन्नत भारत का सपना।

सबसे ज्यादा फायदा हो रहा है छोटे दलों का। क्योंकि यही लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। सांसदों की खरीद फरोख्त हो और झारखन्ड मुक्ति मोर्चा वाले गुरुजी यानि शिबू सोरेन की बात ना हो, ऐसा हो ही नही सकता। गुरुजी बेचारे कोयला मंत्रालय छीने जाने से खफा थे, अब झारखंड का मुख्यमंत्री बनने का अरमान पाले है। टीआरएस वाले जो कि अपने प्रदेश मे ही जनाधार खो चुके है, कांग्रेस ने इनका शहद निकालकर, इनको मक्खी तरह निकाल फेंका है, इसलिए ये भी सरकार गिराना चाहते है। अपने अकेले के बूते तो कुछ ना उखाड़ सकेंगे इसलिए मायावती का दामन थामा है। एक इकलौती पार्टी है जो कह रही है, चुनाव करवा लो, वो है तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, क्योंकि उनको पता है, इस समय लेफ़्ट के भी बाजे बजे हुए है, इसका मतलब है पश्चिम बंगाल मे उनकी चाँदी ही चाँदी। कुल मिलाकर स्थिति बहुत रोचक बनी हुई है।

अभी तो बैठकों, का दौर चल रहा है। कोई भी किसी से भी जाकर मिल आता है। पता ही नही चलता कि ये समाजवादी है या बीजेपी का या फिर वापमंथी । मीटिंग मे सब कुछ तय हो जाए, सौदा पट जाए तो बाहर आकर लोग कुछ प्रेस ब्रीफ़िंग कर देते है, नही तो झोला उठाकर अगली पार्टी के नेताओं से मिलने निकल पड़ते है। पता नही कैसा लोकतंत्र है ये। जनता से कोई कुछ नही पूछता कि परमाणु करार करें कि नही, बस अपनी ही चलाए जाते है ये नेता लोग। अब आप पूछेंगे कि आपका अपना अनुमान क्या है। हालांकि मेरे को इस बात के पैसे नही मिले है, फिर भी बता देते है। मेरे व्यक्तिगत अनुमान से सरकार बच जाएगी और बहुमत भी सिद्द हो जाएगा। उसके बाद आप स्वयं देखिएगा, सरकार के खिलाफ़ बोलने वाले सभी नेताओं का रंग कैसे बदलता है। लेकिन तब तक ऊँट किस करवट बैठेगा कहना मुश्किल है। आप भी देख रहिए, ग्रेट इंडियन डर्टी पॉलिटिकल शो। इस बारे मे आपका क्या विचार है?

3 Responses to “जरा देखना तो, 272 हुए क्या?”

  1. अच्छा हे भाई मुल्क प्रोफेशनल बन रहा है पहले IPL में क्रिकेटरों की बीच बाजार खड़ा करके बोलियाँ लगाई थी अब नेताओं की लग रही है | देश तरक्की कर रहा है आगे -आगे देखिये क्या होता है

  2. अच्छा है,

  3. Today is 21 July 2008. it is the date of define that will U.P.A government can show its full majourity in the Parliament.
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    rishi
    Digital Infosys