चुनाव और नेताओं की आत्मा की आवाज

बहुत दिनों बाद आपसे मुखातिब हुआ हूँ, क्या करें मुआ ट्विटर और फेसबुक जान छोड़े तब ना। आज भी ये वाली पोस्ट मोबाइल से ही लिख रहा हूँ, लैपटॉप खोले तो जमाना हो गया।

तो भैया, हम बात कर रहे हैं नेताओं की अंतरात्मा की, मिर्जा पीछे से बड़बड़ा रहे हैं ‘जो चीज होती नही उसके बारे में बात काहे करें।’  सही कहा, इन नेताओं के पास या तो आत्मा होती नही और अगर कंही अपवाद स्वरूप होती भी है तो चुनाव आने तक सोती रहती हैं।

इसी तरह के एक नेता हैं, राम बिलास पासवान, इन्होंने आत्मा की आवाज पर दलबदल करने में पीएचडी कर रखी है, इनकी आत्मा की आवाज हर चुनाव के पहले इनको आवाज देकर कहती हैं, जा, जीतने वाले पक्ष की तरफ पालाबदल कर। आजकल मोदी की हवा देखकर ये एनडीए के पाले में है, कल कहां होंगे खुद इनको नही पता।

अब ये अकेले दलबदलू नेता हैं, एेसा नही है, अजीत सिंह, झारखंड मुक्ति मोर्चा वाले, मायावती और भी ढेर सारे नेता हैं जो आत्मा की आवाज वाली सियासत करते हैं, विचारधारा गयी तेल लेने।

मोबाइल पर ब्लॉग लिखना कठिन है, इसलिए अभी लेख समेटते हैं, मिलते रहिये और पढते रहिए मेरा पन्ना।

धन्यवाद सुप्रीम कोर्ट

आज बहुत दिनो बाद ब्लॉग लिखने बैठा हूँ, समझ मे नही आता कि क्या लिखू, हमेशा की तरह अपने व्यस्त होने का बहाना बनाऊ या फिर फेसबुक/ट्विट्टर पर अतिव्यस्त होने का रोना रोऊँ. ब्लॉग लेखन एक अलग तरह का लेखन है, जिसमे आपको टाइम देना पड़ता है. फेसबुक और ट्विट्टर फास्ट फ़ूड कि तरह है, जब मन किया ट्वीट कर लिया. जबकि  ब्लॉग लेखन एक पूरे भोजन की तरह है. आप पाठकों तक अपनी बात ठीक ढंग से पहुंचा सकते है.

आज खबर देखी कि सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को राईट टू रिजेक्ट का विकल्प उपलब्ध करवाया है,सीधे शब्दों में, इसका मतलब है कि वोटर को लगता है कि एक भी उम्मीदवार उसके वोट के लायक नहीं है और यह बात दर्ज करवाना चाहता है ताकि बाद में बोगस वोटर उसके वोट का बेजा इस्तेमाल न कर लें. इसका मतलब है कि यदि आप चुनाव में खड़े सभी प्रत्याशियों को रिजेक्ट करना चाहते है तो आप अब कर सकते है. अभी यह तय नहीं है कि इसका प्रयोग आने वाले आम चुनावों तक हो सकेगा अथवा नहीं. अभी तक यह सुविधा दुनिया के कुछ चुनींदा देशों में ही उपलब्ध थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से भारत के मतदाता भी इस नयी सुविधा  का प्रयोग कर सकेंगे.

कुछ भी हो, यह निर्णय भारत के लोकतंत्र में एक मील का पत्थर साबित होगा. धन्यवाद सुप्रीम कोर्ट आपके इस निर्णय का हम तहे दिल से स्वागत करते है.

आज से मैंने अपने ब्लॉग को लिखने के लिए विंडोज लाइव राइटर  और भाषा इण्डिया सॉफ्टवेयर का प्रयोग कर रहा हूँ, हो सकता है इस लेख को लिखने में कुछ मात्रा वगैरह की गलतियाँ दिखे,कृपया उसे अनदेखा करियेगा. धीरे धीरे मेरा हाथ नए वाले सॉफ्टवेर पर सध जाएगा. यदि किसी को लाइव राइटर पर हिंदी शब्दकोष का पता हो तो जरूर बताये.

तो फिर आते रहिये और पढते रहिये, आपका पसंदीदा ब्लॉग मेरा पन्ना.

 

होली का हुड़दंग

आज होली है, इंटरनेट और फ़ेसबूक पर सभी दोस्त यार एक दूसरे को होली की शुभकामनाएँ दे रहे है। लेकिन हमारी स्थिति अजीब है, हम ऑफिस में बैठे हुए अभी भी उन ऊलजुलूल सॉफ्टवेयर और प्रोजेक्ट मैनेजमेंट  में व्यस्त है, हमारे यहाँ कुवैत में सारे त्योहार वीकेंड यानि शुक्रवार/शनिवार को शिफ्ट कर दिये जाते है, वो भले ही होली/दिवाली हो या किसी भी महानुभाव का जन्मदिन, बंदा ऊपर बैठे बैठ गुजारिश करता है कि भाई मेरा जन्मदिन आज है आज ही मना  लो, मेरी आत्मा को शांति मिलेगी, लेकिन ना, यहाँ वाले कुछ नहीं सुनते, बोलते हैं मनाएंगे तो वीकेंड में ही, खैर हमे क्या, हमे तो जब मनाने को बोलोगे तब मना लेंगे। खैर बात हो रही थी, होली की।

हम वैसे तो अपने मोहल्ले की होली को विस्तार से लिख चुके हैं, अगर आपने ना पढ़ी हो तो हमारे ये दोनों लेख जरूर पढ़ लें, ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए। मजा आए तो टिप्पणी जरूर करिएगा।
फाल्गुन आयो रे भाग एक
फाल्गुन आयो रे भाग दो

तो जनाब सबसे पहले तो आप सभी को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ। होली का नाम सुनते ही लोगो में जोश भर जाता है, हालांकि अब वो पहले जैसी बात नहीं रही। हमारे जमाने में होली की तैयारियां तो लगभग एक महीने पहले से करी जाती थी। वो वानर सेना की मीटिंग, होली मनाने के तरीके, झगड़े, पंगे, कमीज फटाई, मार कुटाई, लगभग पूरी संसद जैसा माहौल था। निर्णय वही होता था, जो हम चाहते थे, लेकिन बिना ये सब किए मजा नहीं आता था, इसलिए होली का पहला आइटम यही होता था। अब जब निर्णय हो चुका हो तो अगला काम होता था, एक कमेटी बनाना जो होली के पूरे आयोजन की देखरेख करेगी। फिर चंदे के लिए बड़े बकरों माफ करिएगा चंदा दानदाताओं की पहचान करी जाती थी, फिर उनसे निवेदन (?#$#@ करके ) किया जाता था कि भई होली है, आप भी थोड़ा लोड उठाओ। अगर हम आपको ये नहीं बताते कि हम होली का चंदा इकट्ठा कर रहे है, आप समझते कि हम राष्ट्रीय चुनाव कि बात कर रहे है। चंदे का खेल ऐसा ही होता है, होली का चंदा हो या राष्ट्रीय चुनाव। अब हम चंदे कि पूरी प्रक्रिया पिछले लेख में बता चुके हैं, इसलिए हम दोबारा नहीं लिखेंगे।

Holi Image

होली वाले दिन पूरा हुड़दंग होता था, लाउडस्पीकर का शोर, वही घिसे पिटे पुराने होली गीत से शुरू होते होते, हेलन (भई हमारे जमाने में सिर्फ वही आइटम नंबर करती थी, हीरोइने तो सिर्फ नखरे ही दिखाती थी ) के गीतों तक पहुंचा जाता था। कभी कभी कुछ बाजारू भोजपुरी गीतों को भी चलाया जाता था, लेकिन किसी के ठीक से  समझ में आने पहले ही हटा लिया जाता था। ये सब हम कुछ पुराने ठरकी बुजुर्गो की विशेष फरमाइश पर चलाते थे, जिनकी जोशे जवानी तो एक्सपायर हो चुकी थी, लेकिन उमंगे अभी भी जवान थी। ये सब मुफ्त में नहीं होता था, इसके लिए बकायदा विशेष चंदा वसूला जाता था।

शुकुल की विशेष मांग पर चमचम रेडियो वाले की बात लिखी जा रही है। चमचम रेडियो वाले के दो ही शौंक थे, भांग खाना और नवाबी शौंक। अब नवाबी शौंक क्या होता है, हम यहाँ पर नहीं लिख सकते, शुकुल से पूछा जाए। होली पर भांग का विशेष इंतेजाम किया जाता था, इसके लिए चंदे के पैसों में पूरा प्रोविज़न रखा जाता। चमचम रेडियो वाला (हम उसका नाम भैयाजी रख लेते हैं), तो भैयाजी भांग बहुत खाते थे, हमेशा आँखें चढ़ी चढ़ी रहती थी। मोहल्ले में पूरी तरह से बदनाम था, अक्सर अपने में ही खोया रहता था, पूछो कुछ तो जवाब कुछ और देता था, लेकिन अपने काम में माहिर था। अब मोहल्ले में लाउडस्पीकर किराए पर देने वाली भी इकलौती दुकान थी, इसलिए भैयाजी के अलावा हमारे पास कोई और जुगाड़ भी नहीं था। फिर ऊपर से हमे भैयाजी के अलावा उधार भी कौन देता, हमारी कौन सी  अच्छी साख थी? तो फिर लाउडस्पीकर के लिए भैयाजी फ़ाइनल। अब भैयाजी की वर्माजी कि मँझली बिटिया से सेटिंग थी।  अब ये कैसे हुई, अरे भई, हम मोहल्ले में लाउडस्पीकर लगवाने के लिए जगह का सर्वे कर रहे थे, तब वर्माजी की बिटिया खिड़की से झांक रही थी, बस वहीं भैयाजी और वर्माजी की बिटिया के बीच आखें दो और पौने चार हुई। अब पौने चार कैसे, यार भैयाजी की बायीं आँख थोड़ी कम खुलती है ना इसलिए। तो फिर जनाब, भैयाजी अटक गए, बोले सेटिंग हो गयी है, लाउडस्पीकर तो वर्माजी के घर में ही लगेगा, सबने समझाया लेकिन भैयाजी नहीं माने. हम भी ताड़ गए थे, कि माजरा क्या है, खैर हमने शर्त रख थी, जगह का चुनाव  भैयाजी का, लेकिन पेमेंट कितना और कब मिलेगा, वो  हमारी मर्जी। कहते हैं प्यार में आदमी (सिर्फ आदमी, औरत क्यों नहीं?) अंधा हो जाता है, अब भैयाजी के प्यार के अंधेपन का हम लोगों ने  फायदा ना उठाया तो फिर क्या किया।  तो फिर डील हो गयी, डिसाइड हो गया लाउडस्पीकर वर्माजी के द्वारे ही लगेगा। बिजली के बिल का पंगा था ही नहीं, उस जमाने में कटिया लगाना भी एक शौंक था। फिर मोहल्ले के त्योहार और कटिया न लगे, ऐसे कैसे हो सकता था?  इसलिए फ्री में लाउडस्पीकर घर के बाहर लगे, तो वर्माजी को काहे की परेशानी।

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खैर वर्माजी खुश, भैयाजी खुश, वर्माजी की बिटिया खुश तो हम और आप काहे को चिंता करें। हम भी खुशी खुशी होली मनाएँ। भैयाजी को लाउडस्पीकर के बहाने वर्माजी के घर में एंट्री मिल गयी। वो हर पाँच दस मिनट में लड़की के इशारे होते ही, घर में अंदर हो जाता और फिर तभी बाहर निकलता जब घर के किसी बड़े बुजुर्ग को उसके होने का आभास होता या फिर बाहर वानर सेना वाला  भैयाजी को गालियों से नहीं नवाजता। ये अंदर बाहर ,बाहर अंदर सब कुछ सही चल रहा था, हम डील के हाथों बंधे थे, वानर सेना को पूरी स्थिति की जानकारी नहीं थी, वर्माजी अपने आप में बिजी थे, वरमाइन पकवान बनाने में। लेकिन वो कहते है न, इश्क़ और मुश्क (ये मुश्क क्या होता है?) छिपाए नहीं छिपते, इसलिए बैरी जमाने को भैयाजी के इस प्रेम प्रसंग की खबर लग गयी। हुआ यूं की भैयाजी भांग की पिनक में वर्माजी के घर होली मिलने चले गए और काफी देर घर के अंदर ही रहे, नहीं भाई, होली मिलन कोई गुनाह थोड़े ही है, लेकिन अगर आप होली के दो महीने बाद होली मिलने जा रहे हो तो पक्का पंगा है। वही हुआ, भैयाजी रंगे हाथों (ये मुहावरा गलत है, रंगे हाथों का मतलब आज तक समझ में नहीं आया ) पकड़े गए, फिर जैसा होता है, वही हुआ, लड़की मुकर गयी, इसलिए सिर्फ डांट पड़ी, लेकिन भैया जी, भैयाजी की तो जमकर सुताई हुई। शोर सुनकर मोहल्ले वाले भी हाथ बटाने पहुँच गए।  वर्माजी और मोहल्ले वाले , जब मार मार कर थक गए तो उन्होने पिटाई का काम वानर सेना को आउटसोर्स कर दिया। हम लोग भी पूरे मजे ले लेकर भैयाजी को मारे, हर ऐसी वैसी जगह पर मारा गया, जहां से उनके नवाबी शौंक परवान चढ़ते  थे।  अब चूंकि  भैयाजी ने हमारी वानर सेना के एक वानर को भी अपने नवाबी शौंक का शिकार बनाया था, इसलिए उस वानर ने भी अपनी जमकर भड़ास निकली। इस तरह से भैयाजी को उनके किए (या बिना किए ) की सजा मिली।

खैर हम मुद्दे से न भटके, बात होली की हो रही थी, ये तो भैयाजी को शुकुल पकड़ कर ले आए बीच में। अब होली का जिक्र हो और धरतीधकेल नेताजी (मोहल्ले के छुट भैया नेता, आजकल बहुत नाम और नामा  कमा रहे हैं, नहीं भई, हम उनका नाम नहीं लेंगे, डील है) की बात न हो। हमारे नेताजी का कहना था, कि वो जमीन से जुड़े हुए नेता है। हम लोग इसका नमूना हर होली में, नेताजी को जमीन पर लोटते हुए देखते थे,इसलिए हम भी इस बात की ताकीद करते है कि वो सचमुच जमीन से जुड़े हुए नेता हैं। नेताजी का भाषण, मोहल्ले, शहर, प्रदेश और देश/विदेश की समस्याओं से शुरू होता था, (फिर भांग के पकोड़ों की वजह से ) नॉन वेज चुटकुलों में जाकर भी नहीं थमता था। नेताजी हमारे होली दिवस के सबसे सॉलिड आइटम थे। भंग के पकोड़ो और ठंडाई के बात उनका खुद पर कंट्रोल खतम हो जाता था, जहां इनका कंट्रोल खतम हुआ, वानर सेना ने कमान संभाल ली, फिर नेताजी को कैसे और किस रूप में नाचना है, ये वानर सेना डिसाइड करती थी। नेताजी मधुबाला से शुरू होते थे और हेलेन के कैबरे पर जाकर रुकते थे, अब मोहल्ले वालों  विशेषकर भैयाजी का  बस चलता तो वो उनको सनी लियोने बना देते, लेकिन सड़क का मामला था और फिर भैयाजी भी अभी पिछले पैराग्राफ में पिटा  था, इसलिए उनके इरादों पर पानी फेरा गया। नेताजी को किसी और दिन भैयाजी के हवाले करेंगे।

होली का हुड़दंग शाम तक चलता था, अलबत्ता 12 बजे के बाद हम लोग मोहल्ले के हर घर में होली खेलने जाते थे। ये वाला प्रोग्राम हमारा सबसे सफल प्रोग्राम हुआ करता था, लोग पूरा साल इंतज़ार करते, दूर दूर से ही अपने माशूक़ को देखते रहते, लेकिन घरों में होली खेलने वाले प्रोग्राम में शामिल हो जाते, क्यों? अरे भाई माशूक़ के घर एंट्री मिल गयी थी, वो भी बिना नाम बदनाम हुए। अक्सर उस घर में ज्यादा लोग जाते जहां पर जवान कन्याएँ रहती थी, अब जितने  अंदर जाते, बाहर उतने नहीं निकलते थे, अक्सर गिनती में कमी हो जाती थी। अब जैसे जैसे बंदे कम होते जाते, हम लोग भी होली खेलते खेलते अपने अपने घरों को निकल जाते। वो भी क्या दिन थे? पूरा मोहल्ला एक परिवार की तरह होता था, आपस में गिले शिकवे भी होते थे, लेकिन आपस में प्यार बहुत था। अपने घर का लोग खयाल भले न रखे, पड़ोसी के घर का जरूर रखते थे। यही सब लोगों को जोड़े रखता था। अब कहाँ वो खयाल,  वो किस्से कहानिया, वो होली की मस्तियाँ  , वो त्योहार, वो अपनापन , सब कुछ जैसे यादों में ही सिमट कर रह गया है। खैर होली तो होली ही है, चलो इसी दिन आप लोग सब कुछ भूलकर पड़ोसी के साथ होली मना लें। ध्यान रहे, पड़ोसी से ही मनाएँ, पड़ोसिन से पंगे न लें। आप सभी को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।  इसी के साथ मुझे इजाजत दीजिये, नहीं तो कंपनी मेरे को भैया जी बना देगी। आते रहिए पढ़ते रहे आपका पसंदीदा ब्लॉग।

दो मोबाइल का चक्कर….

आप सभी को मेरा प्यार भरा नमस्कार।
आप सभी लोगों से बहुत दिनों बाद मुखातिब हुआ हूँ, क्या करूँ, रोजी रोटी से टाइम मिले तो ही कुछ लिखा जाए। खैर ये सब गिले शिकवे तो चलते ही रहेंगे। चलिये कुछ बात की जाए हमारे आपके बारे में। मै अक्सर दो अपने साथ रखता हूँ, एक मेरा सैमसंग गलक्सी एस2 और दूसरा मेरा प्यारा नोकिया ई71। मेरे से अक्सर लोग पूछते है कि ये दो दो मोबाइल का चक्कर क्या है। मै बस मुस्करा कर रह जाता हूँ। लेकिन पिछले दिनों मिर्जा पीछे ही पड़ गया, बोला तुमको आज बताना ही पड़ेगा कि दो दो मोबाइल, वो भी एक नयी तकनीक वाला और दूसरा पुराना, चक्कर क्या है। तो आप लोग भी मिर्जा के साथ साथ सुनिए।

हे मिर्जा, पुराने जमाने में हमारे मोहल्ले में वर्मा जी रहते थे, (यहाँ वर्मा जी का नाम सिर्फ रिफ्रेन्स के लिए लिया गया है, बाकी के शर्मा,शुक्ल,मिश्रा, वगैरह ना फैले और किसी भी प्रकार की पसढ़ न मचाएँ।) तो बात वर्मा जी की हो रही थी उनके चार बेटे थे। जब भी कोई उनके घर जाता तो शान से अपने सारे बेटों के बारे में बताते थे। एक दिन हम उनके घर गए तो उन्होने हमे अपने बेटो से मिलवाया।

ये मेरा सबसे छोटा बेटा है, डॉक्टर है।
ये मेरा तीसरे नंबर का बेटा है, इंजीनयर है।
ये मेरा दूसरे नंबर वाला बेटा है, वकील है।
और ये मेरा सबसे बड़ा बेटा है, ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाया, इसलिए नाई की दुकान चलता है।
हम बमक गए, बोले वर्मा जी, आपने अपने सारे बच्चों को इतना अच्छा पढ़ाया लिखाया और कैरियर मे सेट किया, लेकिन आपका बड़ा बेटा टाट में पैबंद की तरह दिख रहा है, इसको आप अपने दूसरे बेटों के साथ परिचय में शामिल नहीं किया करो। अच्छा नहीं लगता। वर्मा जी धीरे से बोले, “मियां धीरे बोलो, मेरा बड़ा बेटा ही तो घर का खर्च चला रहा है। उसी पर तो पूरे घर का दारोमदार है। उसका परिचय नहीं कराएंगे तो कैसे चलेगा।”

तो हे मिर्जा, उसी तरह मेरे पास भी दो मोबाइल है, एक नयी तकनीक वाला और दूसरा नोकिया वाला, लेकिन आवाज आज भी पुराने वाले मोबाइल से ही अच्छी आती है। नया वाला तो सिर्फ
एप्लिकेशन प्रयोग करने और मन बहलाने के लिए है। सुबह से दिन तक, नए वाले फोन की बैटरी चुक जाती है, नोकिया वाला फोन न हो, लोगों से बात करना मुहाल हो जाये। इसलिए ये नोकिया वाला फोन मेरे घर का नाई वाला बेटा है, उसके बिना सब कुछ सूना सूना सा है। उम्मीद है आप लोगों को भी मिर्जा के साथ साथ मेरे दो दो मोबाइल रखने का मकसद समझ में आ गया होगा। तो फिर इसी के साथ विदा लेते है, मिलते है, अगले कुछ दिनों में।

अपडेट : छोटी बेटी के स्कूल की छुट्टियाँ थी, इसलिए बेगम साहिबा अपने मायके भारत तशरीफ ले गयी है, हम अपनी तशरीफ यहीं पर रखे हुए हैं, क्योंकि कंपनी का कहना है, अभी आप तशरीफ का टोकरा नहीं हटा सकते, सिस्टम हिल जाएगा। इसलिए यहीं बने रहें। अब बेगम साहिबा के बिना जीवन कितना सुखमय/दुखमय चल रहा है, इस बारे में जल्द ही लिखा जाएगा।

ओ हुसना….

अभी पिछले दिनों, मैं इन्टरनेट पर एम् टीवी कोक स्टूडियो देख/सुन रहा था. एम् टीवी कोक स्टूडियो ढेर सारे अच्छे कलाकारों के साथ रिकॉर्डिंग करता है. यदि आपको विभिन्न भाषाओँ में ढेर सारे अच्छे कलाकारों को सुनना है तो कोक स्टूडियो सही स्थान है. मेरे को कोक स्टूडियो और एम् टीवी अन-प्लुगगड अच्छा लगता है, क्योंकि इसमें कलाकार अपने पूरे मूड में होते है और वाद्य यंत्रो का शोर भी कम होता है, फिर ऊपर से फ्युजन का अच्छा प्रयोग भी देखने को मिलता है. मुझे कोक स्टूडियो में एक गीत बहुत पसंद आया, आप सभी से शेयर करना चाहूँगा. इसको आप सुकून से सुनियेगा, आपको अच्छा लगेगा. इसको लिखा और गाया है, हमारे पसंदीदा पियूष मिश्रा ने, वही गैंग ऑफ वासेपुर वाले(पूरी फिल्म में आप इनकी आवाज को सुन सकते है), इन्होने फिल्म में एक महत्वपूर्ण रोल भी निभाया था.

हसना एक ऐसा गीत है जो आपके सामने भारत और पाकिस्तान के विभाजन की यादों को दोबारा ताज़ा कर देगा. विभाजन के पहले हसना और जावेद दोनों एक हो मोहल्ले में रहते थे और एक दुसरे से बेहद प्यार करते थे. विभाजन के बाद, हसना पाकिस्तान में रह गयी और जावेद लखनऊ में आकर बस गए. काफी सालों बाद जावेद ने हसना को एक खत लिखा, पेश है जावेद का खत हसना के नाम :

लाहौर के उस
पहले जिले के
दो परगना में पहुंचे
रेशम गली के
दूजे कूचे के
चौथे मकां में पहुंचे
और कहते हैं जिसको
दूजा मुल्क उस
पाकिस्तां में पहुंचे
लिखता हूँ ख़त में
हिन्दोस्तां से
पहलू-ए हुसना पहुंचे
ओ हुसना

मैं तो हूँ बैठा
ओ हुसना मेरी
यादों पुरानी में खोया
पल-पल को गिनता
पल-पल को चुनता
बीती कहानी में खोया
पत्ते जब झड़ते
हिन्दोस्तां में
यादें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला हिन्दोस्तां में
बातें तुम्हारी ये बोलें
ओ हुसना मेरी
ये तो बता दो
होता है, ऐसा क्या
उस गुलिस्तां में
रहती हो नन्हीं कबूतर सी
गुमसुम जहाँ
ओ हुसना

पत्ते क्या झड़ते हैं
पाकिस्तां में वैसे ही
जैसे झड़ते यहाँ
ओ हुसना
होता उजाला क्या
वैसा ही है
जैसा होता हिन्दोस्तां यहाँ
ओ हुसना

वो हीरों के रांझे के नगमें
मुझको अब तक, आ आके सताएं
वो बुल्ले शाह की तकरीरों के
झीने झीने साये
वो ईद की ईदी
लम्बी नमाजें
सेंवैय्यों की झालर
वो दिवाली के दीये संग में
बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिनमें
संग-संग आंच लगाई
लोहड़ी का वो धुआं जिसमें
धड़कन है सुलगाई
ओ हुसना मेरी
ये तो बता दो
लोहड़ी का धुंआ क्या
अब भी निकलता है
जैसा निकलता था
उस दौर में हाँ वहाँ
ओ हुसना

क्यों एक गुलसितां ये
बर्बाद हो रहा है
एक रंग स्याह काला
इजाद हो रहा है

ये हीरों के, रांझों के नगमे
क्या अब भी, सुने जाते है हाँ वहाँ
ओ हुसना
और
रोता है रातों में
पाकिस्तां क्या वैसे ही
जैसे हिन्दोस्तां
ओ हुसना

Movie/Album: कोक स्टूडियो एम.टीवी (2012)
Music By: पियूष मिश्रा, हितेश सोनिक
Lyrics By: पियूष मिश्रा
Performed By: पियूष मिश्रा

और ये रहा विडियो का लिंक ( http://www.youtube.com/watch?v=4zTFzMPWGLs )

कौन सा स्मार्टफोन अथवा टैबलेट खरीदें?

आप सभी के पास स्मार्टफोन तो जरूर होगा. जिनके पास नहीं होगा तो वे अवश्य ही खरीदने की सोच रहे होंगे. अक्सर देखा जाता है कि हम लोग कोई बड़ी चीज़ खरीदने से पहले कोई विशेष रिसर्च नहीं करते, या तो हम किसी पडोसी की सलाह पर लेते है, या फिर अपने ऑफिस के किसी सहयोगी की सलाह पर या फिर अखबार, पत्रिका अथवा टीवी के विज्ञापन के प्रभाव में आकर अपनी खरीदारी कर बैठते है. अब चूंकि स्मार्टफोन अथवा टैबलेट आपके सबसे करीबी, जी हाँ सबसे करीबी सहयोगी होंगे, इसलिए उनका चुनाव बड़े ध्यान से करे.

सबसे पहले तो आप अपनी जरूरत को समझे, स्मार्टफोन अथवा टैबलेट खरीदते समय कुछ बातो का विशेष ध्यान रखना चाहिए.

मोबाइल सिस्टम :
जैसे हमारा कंप्यूटर माइक्रोसोफ्ट विंडोज पर आधारित है, उसी प्रकार स्मार्टफोन भी विभिन्न प्रकार के ओपेरटिंग सिस्टम पर चलते है. इनमे सबसे लोकप्रिय एप्पल का iOS और गूगल का एंड्रोइड है. हालांकि अब माइक्रोसोफ्ट भी अपने विंडोज 8 साथ बाजार में है. अब इसमें कौन सा अच्छा है और कौन बुरा, इस पर लिखने बैठूंगा तो एक लेख नाकाफी होगा. मेरी अपनी पसंद एंड्रोइड है.

मेमोरी :
स्मार्टफोन खरीदते समय सबसे मेमोरी का विशेष ध्यान रखे, कम से कम 512MB (ज्यादा जितना हो अच्छा) होनी ही चाहिए. यदि आप ढेर सारे मोबाइल प्रोग्राम (Applicaitons) चलने के इच्छुक है तो कम से कम 1GB अवश्य ले, अन्यथा बाद में आपको पछताना पड़ सकता है.

प्रोसेसर :
जितनी जरूरी मेमोरी है, उतना ही महत्वपूर्ण स्मार्टफोन का प्रोसेसर होता है. कम से कम आप 1GHz का प्रोसेसर जरूर लें. आजकल तो मल्टी कोर प्रोसेसर (जैसे Dual/Quad Core वाले प्रोसेसर) का जमाना है, लेकिन फिर भी आप कम से कम सिंगल कोर 1GHz का प्रोसेसर का चयन करें. जितना अच्छा आपका प्रोसेसर होगा, आपका स्मार्टफोन उतनी ही सहजता से चलेगा. यदि आपके चयनित स्मार्टफोन के प्रोसेसर में ग्राफिक्स का विशेष सपोर्ट हो तो सोने पर सुहागा.

एंड्रोइड संस्करण :

आप यह जरूर ध्यान रखे कि आपका चयनित स्मार्टफोन एंड्रोइड के लेटेस्ट संस्करण (अभी Jellybean 4.2.1 version) पर आधारित हो. हो सकता है कि आपको पुराने संस्करण वाले फोन थोड़े सस्ते मिल जाए, लेकिन आप उस चक्कर में मत पड़ना, मोबाइल में लेटेस्ट ही लेना चाहिए.

SmartPhone and Tablet

स्क्रीन साइज़ :
अब बात आती है, स्क्रीन के साइज़ की. वैसे तो बाज़ार में विभिन्न प्रकार की स्क्रीन साइज़ के फोन उपलब्ध है, लेकिन मेरी राय में फोन कम से कम 4 इंच का होना ही चाहिए. टैबलेट की साइज़ कम से कम 7 इंच होनी ही चाहिए. बाकी आप अपनी पसंद से स्क्रीन साइज़ का चुनाव करें.

कैमरा :
स्मार्टफोन में कम से कम 5 MegaPixel का कैमरा होना ही चाहिए, ज्यादा जितना हो, उतना बेहतर. ध्यान रखियेगा स्मार्टफोन में दोनों तरफ कैमरा होना जरूरी है, एक तरफ कैमरे वाले स्मार्टफोन का चुनाव न करें.

गारंटी और स्थानीय सपोर्ट :
यह जरूर देख लें कि आपके शहर में उस फोन का सर्विस सेंटर अवश्य हो. कभी जरूरत पड़े तो दिक्कत ना आये. वैसे तो सभी बड़ी कम्पनिओं के सर्विस सेंटर हर छोटे बड़े शहरों में उपलब्ध है.

ब्रांड :
यह भी एक महत्पूर्ण निर्णय है, ब्रांड अच्छा होना चाहिए. मार्केट में एक तरफ सैमसंग, एलजी, एचटीसी जैसे बड़े ब्रांड तो दूसरी तरफ माइक्रोमैक्स, कार्बन, स्पाइस और लावा जैसे स्थानीय ब्रांड उपलब्ध है. कुछ अच्छी चीनी ब्रांड जैसे हुवावे भी उपलब्ध है, आप अपनी पसंद और बजट के हिसाब से ब्रांड का चुनाव करें. लेकिन मोबाइल के फीचर्स से समझौता न करें.

इन्टरनेट पर समीक्षा :
आप अपने पसंदीदा फोन अथवा टैबलेट कि इन्टरनेट पर समीक्षा जरूर पढ़े, कम से कम उस उत्पाद की खूबियों और कमजोरियों के बारे में आपको जानकारी होनी ही चाहिए. हो सके तो यूटूब पर उसका विडियो भी देखे. कम से कम दो समीक्षाएँ जरूर देखें, ताकि आप निष्पक्ष राय कायम कर सकें.

कहाँ से लें? :
ये एक अच्छा सवाल है, आप कंपनी के शोरूम, स्थानीय विक्रेता, ऑनलाइन शौपिंग पोर्टल अथवा अपने मोबाइल ओपेरटर (स्कीम के साथ) का चुनाव कर सकते है. जहाँ से आपको अच्छी डील मिले, उसी का चुनाव करिये. मेरी पसंद ऑनलाइन शौपिंग पोर्टल और स्थानीय मोबाइल ओपेरटर है. कभी कभी मोबाइल कम्पनिया आपको डाटा प्लान के साथ अच्छी डील देती है, उस पर नज़र रखिये.

आगे क्या? :
यदि आपने अपना पसंदीदा स्मार्टफोन ले लिया है तो अपनी पसंद के अप्प्लीकेशन डाउनलोड करें. स्मार्टफोन केअप्प्लीकेशन के बारे में एक पोस्ट अलग से लिखी जायेगी. अप्प्लीकेशन से सम्बंधित सहायता के लिए आप मुझे ट्विट्टर पर फोलो कर सकते है, मेरी ट्विट्टर आईडी है @jitu9968

वैसे तो मैंने पूरी कोशिश की है कि आपके दिमाग में उठ रहे सारे सवालों के जवाब दूं, लेकिन यदि आपके मन में कोई सवाल रह गया है तो आप बेहिचक टिप्पणी में लिख सकते है. मै जवाब देने कि पूरी कोशिश करूँगा.

यदि आप ये ना होते तो क्या होते?

चलिये आज कुछ बात करते है, आपके अपने प्रॉफ़ेशन की। यदि आप अपने इस कैरियर में न होते तो क्या होते? वैसे तो मैंने पहले भी इस बारे में बात लिखी है, पिछली बाते ताज़ा करने के लिए ये वाला लेख देखिये। तो जनाब शुरू करते है। यदि मैं अपने इस कम्प्युटर सॉफ्टवेर वाले पेशे में न होता तो कहाँ होता?

चार्टर्ड अकाउंटेंट  : जी हाँ, घर वालों ने मेरे बारे में यही सोचा था। मेरी पढ़ाई भी उसी दिशा में चल रही थी, ये तो मार पड़े कम्प्युटर के कीड़े को, जो काट गया और ऐसा काट गया कि, अच्छा खासे उदीयमान चार्टर्ड अकाउंट की वाट लग गयी और हम कूद पड़े कम्प्युटर सॉफ्टवेर के पेशे में। अब ये सब हुआ कैसे? हमने कॉमर्स  की पढ़ाई शुरू करी, बात उस समय की है, जब हम इंटरमीडिएट (12वी कक्षा) मे हुआ करते थे, हम शुरू से ही अलमस्त टाइप के थे, दिन कहाँ गुजरा पता नहीं, अलबत्ता रात को पढ़ाई जरूर करते थे। हमारे कुछ मित्रों के बड़े भाई IIT कानपुर में पढ़ते थे, हम अक्सर साइकल उठाकर उनसे मिलने IIT कानपुर चले जाया करते, उनकी लैब में जकर टाँक झांक करते, उनकी लाइब्ररी मे बैठ जाते, लोग समझते थे, कि हम लाइब्ररी मे पढ़ने जाते थे, ये गलत था, ऐसा ओछा इल्ज़ाम आप हम पर नहीं लगा सकते।इधर आईआईटी वालों ने अपनी 25वी सालगिरह पर अपनी सारी प्रयोगशालाएँ पब्लिक के लिए खोल दी थी। हम तो वहाँ के रेगुलर आउट-साइडर थे ही, हम भी हर गतिविधि जैसे क्विज़ वगैरह में भाग लिए, और भगवान जाने किसकी गलती से हम एक दो क्विज़ में प्रथम स्थान पर आ गए, एक प्रोफेसर ने ताड़ लिया, बोले आओ बैठो, समझते हैं। उन्होने हमसे पूछा क्या पढ़ते हो, हम बोले कॉमर्स, प्रोफेसूर ने बोला, तुम्हारा लॉजिकल रीज़निंग अच्छा है, तुम कम्प्युटर मे शिफ्ट काहे नहीं हो जाते। अब इनको कौन समझाता कि , ये डिसिजन हमारे हाथ में नहीं था, प्रोफेसर साहब ने हमे रोजाना कम्प्युटर पर काम करने के लिए बुलाया, जिसके लिए हम तुरंत तैयार हो गए। अब शाम हम उनके साथ ही बिताते थे। खैर अब कम्प्युटर का कीड़ा तो हमको काट ही चुका था, अब कॉमर्स में किसको इंटरेस्ट होता?

गायक : मेरे को गायकी का कीड़ा बहुत पहले ही काट चुका था, माशा-अल्ला उस समय आवाज़ भी काफी अच्छी थी, शहर में एक बार रोटरी क्लब वालों ने एक प्रतियोगिता आयोजित कारवाई थी,  बड़े जतन और लगन से उसमे भाग लिया था।  उस समय संगीत और सुरों का कोई विधिवत ज्ञान न होते हुए भी, मेरे को एक (सांत्वना) पुरस्कार मिला था। फिर प्यार-श्यार के चक्कर में बंदा गायक बन ही जाता है, नहीं नहीं, में अता-तुल्लाखान तो नहीं बना, लेकिन दर्द भरे नगमे गाने में मेरी महारत थी। कई बार सोचा कि संगीत की विधिवत शिक्षा लूँ, लेकिन रोजी रोटी के चक्कर में सब धरा का धरा रह गया।  लेकिन समय रहते रहते गायकी का भूत भी उतार गया, या कहो घर वालों ने उतार दिया। इस तरह से एक अच्छे खासे उभरते गायक की प्रतिभा को दबा दिया गया। अभी भी कभी कभी गुनगुना लेता हूँ, आप लोगों कि हिम्मत हो तो आप (अपने रिस्क पर) मुझे मेरे संगीत  ब्लोग्स में  सुन सकते है।

मास्टर शेफ : जी हाँ, आपने सही सुना। मेरे को खाने का बड़ा शौंक है, स्वाद के बारे में काफी कुछ बता सकता हूँ।  आज भी श्रीमति जी, मेरे स्वाद कि समझ को दाद देती है। मेरा पूरा पक्का विश्वास है, मैं भारतीय ही नहीं, दुनिया भर से व्यंजन बहुत आसानी से पका सकता हूँ। अब चूंकि मेरा किचन में जाना बीबी जी ने बैन कर रखा है, इसलिए मेरी इस प्रतिभा को भी उभरने नहीं दिया गया। अब घर में दो मास्टर शेफ तो हो नहीं सकते, इसलिए शादी बचाने के लिए इस शौंक का त्याग करना पड़ा। अब  कूक तो बना नहीं, लेकिन अभी भी  मास्टर शेफ वाले पूरे गुण है।

 चित्र सौजन्य से 

ट्रैवल ब्लॉगर : मेरे को घूमने का बहुत शौंक है। भारत के लगभग हर हिस्से को कई कई बार देखा है। इतनी यात्राएं की है, मेरी हसरत थी कि, मै एक दो डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाऊँ, लेकिन क्या करें, कोई विडियो शूट करने वाला पार्टनर नहीं मिला, चाहे कुछ भी हो, कभी न कभी मै एक विडियो डॉक्युमेंट्री जरूर बनाऊँगा। देखते है ये हसरत कब पूरी होती है।

उपन्यासकार :  बचपन में जासूसी नॉवेल बहुत पढे थे, राजन-इकबाल, राम-रहीम से बढ़ते हुए, विक्रांत, विजय-विकास और केशव पंडित तक को पढ़ा। मेरे पसंदीदा उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा थे, एक बार उनसे मेरठ जाकर मुलाकात भी कर आया था। बचपन में काफी आधी अधूरी कहानिया लिखी थी, जिनमे मौलिक कम कॉपी ज्यादा थी। लिखने का शौंक तो था, लेकिन उपन्यास लिखने का साहस कभी नहीं जुटा सका। इसलिए समय रहते ये शौंक भी जाता रहा।

शतरंज के खिलाड़ी :  मेरा एक और शौंक था, शतरंज खेलना। बचपन में, मैंने स्कूल/कॉलेज और युनिवेर्सिटी स्तर पर खेला था, लेकिन उसके बाद कभी भी इसको पेशे के तौर पर नहीं अपना पाया। समय  रहते बाकी के सारे शौंक तो खतम हो गए, लेकिन ये शौंक अभी भी बरकरार है। आज भी आप मुझे विभिन्न ऑनलाइन चेस साइट पर खेलते हुए पाएंगे। फिर माशा अल्ला मेरी रेटिंग भी काफी अच्छी है। तो फिर आइए कभी खेलते है ऑनलाइन।

धर्मगुरु : आप कहेंगे का भी कोई प्रॉफ़ेशन होता है, हाँ जी होता है, ये पेशा ही सबसे अच्छा पेशा है। भले ही हमारे 36 करोड़ देवी देवता है, उसके बाद भी हमारे यहाँ लाखो धर्म गुरुओं का बिज़नस बे रोक टोक, शान से चल रहा है। बस आपको लोगों को प्रभावित करने आना चाहिए, गूढ गूढ बाते करिए, बाकी चेले चपाटी, संभाल लेंगे। बाकी गुण तो मेरे में है, लेकिन कभी भी इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचा, सोचता हूँ अब बुढ़ापे में इस बारे में भी सोचा जाये, हो सकता है काम बन जाये। आप क्या कहते हो?

चलिये मैंने तो अपनी बता दी, आप भी कुछ अपने बारे में लिख डालिए। मेरे बचपन के और ढेर सारे खुराफाती शौंक के बारे में जानने लिए यहाँ देखें। तो फिर आते रहिए और पढ़ते रहिए|

 

 

पियक्कड़ी पर पीएचडी

 

कल ही इन्टरनेट पर एक शानदार पोस्ट देखी, अंग्रेजी में थी, सोचा चलो हिंदी में लिखकर अपने पाठकों का ज्ञानवर्धन कर दें. यह लेख उन दारूबाजों को समर्पित है जिन्होंने अपनी पूरी  जिंदगी दारु को समर्पित कर रखी है. ऐसा अक्सर देखा जाता है कि लोग दो तीन पैग पीने के बाद अजीब अजीब से हरकतें करने लगते है, ये लोग उन दारूबाजों कि तरफ से लिखा गया है, जो ज्यादा पीने के बाद महसूस करते है. दारूबाजों से निवेदन है कि बोतल खोलने  के पहले इस लेख को पढ़े, क्योंकि पीने के बाद तो शायद दुसरे पढकर आपका उपचार करें.

तो फिर शुरू करें?

 

1) लक्षण : यदि आपको लगे कि आपके पैर ठन्डे और गीले हो रहे है.

कारण : आपने अपने गिलास को ढंग से नहीं पकड़ रखा है, (आप दारू को गिलास के पिछले हिस्से में उढ़ेल रहे है, जो आपके पैर पर गिर रही है)

उपचार : गिलास को धीरे से उलटिए, ताकि उसकी गहरे में आप झांक सके, अब फिर से उसमे दारु उडेलना शुरू करिये. अबकी सीधे से डालियेगा.

 

2) लक्षण : आपको  आँखों के सामने ढेर सारी रौशनी दिखाई पड़ रही है.

कारण : आप फर्श पर गिरे पड़े है.

उपचार : अपने शरीर को 90 डिग्री में घुमाइए , क्या कहा 90 डिग्री क्या होता  है ? देखा गणित से नफरत करने का क्या नतीजा होता है,? अपने एक हाथ को फर्श पर लगाइए और उठ खड़े होइए, 90 के फेर में मत अटकिये.

 

3) लक्षण : आपको सब कुछ धुंदला धुंदला दिखाई दे रहा है.

कारण : आप खाली गिलास के आर पार देख रहे है.

उपचार : अब देखना वेखना छोडिये और गिलास (सीधा करके) दारु डालिए.

 

4) लक्षण : पूरा फर्श हिल रहा है.

कारण : कोई भूकम्प वगैरह नहीं आया है, आप फर्श पर घसीटे जा रहे है.

उपचार : आपने आपको संयत करने की कोशिश करिये, और कम से कम उनसे पूछिए तो कि  भई कहाँ ले जा रहे हो? वहाँ दारु का इंतज़ाम है कि नहीं?

 

5) लक्षण : आपको सभी लोगो की आवाज गूंजती गूंजती सुने पड़ रही है.

कारण : नहीं भई, आप पहाडो पर नहीं हो, आपने अपना खाली गिलास कान में लगा रखा है.

उपचार : अब गिलास से टेलीफोन टेलीफोन खेलना छोडिये, गिलास भरिये और अगला पैग बनाइये.

 

6) लक्षण : आपको अपने परिवार के लोगों की  शक्लें अजीब अजीब सी लग रही है.

कारण : आप गलत घर में घुस आये हैं,

उपचार : इस से पहले कि वो आपको पीटें, दोनों हाथ जोड़कर उनको निवेदन करें कि वो आपको आपके घर तक छोड़कर आयें.

 

7) लक्षण : एक अजीब से महिला, जानी पहचानी आवाज में चिल्ला चिल्ला कर कुछ बेफिजूल सा कहने कि कोशिश कर रही है.

कारण : आप अपने ही घर में अपनी बीबी के सामने खड़े है. यदि महिला आपको पीने के बाद अजीब लग रही है, तो ये आपकी शादी के फैसले की जल्दबाजी का ही नतीजा है.

उपचार : “डार्लिंग, अब से तौबा, आगे से नहीं” टाइप के डायलोग (निवेदन भरे, मधुर स्वर में) पेश करिये. पत्नी जी, अपनी ऊर्जा खत्म होते ही, आपको आपके हाल पर छोड़ कर, पैर पटकती हुई चली जायेंगी.

 

8) लक्षण : वातावरण में अजीब सी गंध है, लेकिन कोई आपको बहुत प्यार कर रहा है.

कारण : आप नाली में गिरे पड़े है और सुवर/कुत्ता आपके मुंह को चाट रहा है.

उपचार : सुवर/कुत्ते को दूर हटाइए, नाले से उठने  की ( वैसे ही 90 डिग्री वाली )  कोशिश करिये

 

9) लक्षण : पूरा कमरा थरथरा रहा है, सभी लोग अजीब सी सफ़ेद पोशाक में है.

कारण : आप एम्बुलेंस में है.

उपचार : कुछ मत करिये, यूं ही पड़े रहिये, जो करना है डॉक्टर को करने दें.

10) लक्षण : सभी लोग उलटे उलटे (सर के बल चलते हुए)  दिखाई दे रहे है और सारे लोग अजीब सी खाकी पोशाक में है.

कारण : आप पुलिस थाने में है, और आपको उल्टा लटकाया गया है.

उपचार : उनसे पूछिए कि भई, हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है.

 

तो फिर आप लोग अपनी राय देना मत भूलिएगा, कोई और प्वाइंट रह गया हो तो जरूर बताइयेगा.

 

आप पक्के कानपुरिया है यदि ….

  1.  आप हर दूसरे वाक्य में चू*या शब्द का प्रयोग करते हैं।
  2.  आप शॉपिंग माल में चुपचाप पैसे देकर आ जाते हैं, लेकिन रिक्शे वाले से अठन्नी के लिए झगड़ा करते हैं।
  3.  आप बिना मांगे और बेवजह अपनी राय देते हैं। खासकर, जब कभी आप ट्रेन में सफर कर रहे हों।
  4.  आपके शब्दकोश में गालियों का भंडार है।
  5.  आप स्कूटर और दूसरे दो पहिया वाहन पर कभी भी हेलमेट लगाकर नहीं चलते और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
  6.  आपको अपने मोहल्ले के दादा, थानेदार, सड़क छाप नेता और विधायक का नाम रट्टा मार कर रखे हुए हैं। गाहे बगाहे आप इनको अपना रिश्तेदार बताकर मतलब निकलते हैं।
  7.  आपने किसी मीडिया वाले मित्र को कहकर, अपना मीडिया वाला परिचयपत्र जरूर बनवाया हो।
  8.  आपने अपनी गाड़ी के पीछे न्याय विभाग जरूर लिखवाया हो, भले ही आपके खानदान में कभी कोई वकील न हुआ हो।
  9.  आपको ईश्वर पर विश्वास हो ना हो, लेकिन आपको जुगाड़ पर पक्का विश्वास है।
  10.  पान मसाला से आपका दिन शुरू होता है और गुटखे के रास्ते पर आप चल निकलें हो।
  11.  आप फिल्म देखते समय आप ये बताना नहीं भूलते कि ये सीन कहाँ फिल्माया गया है, और आप वहाँ पर कितनी बार गए हो। भले ही बगल वाला, मन ही मन आपको गालियां देता रहे।
  12. आप कभी भी किसी लाइन ने नहीं लगते, पूरा शहर आपका अपना है।
  13. गाड़ी चलते समय आप हमेशा शॉर्ट-कट लेते हो, लेकिन यदि दूसरे करें तो आप गलियाँ देने से नहीं चूकोगे।
  14. शहर के हर गली नुक्कड़ के गढ़हों के बारे में आपने पी-एच-डी कर रखा होगा, लेकिन आपकी गाड़ी आपके घर के नुक्कड़ वाले गड्डे में फँसने पर आप बोलोगे, “अरे ये कब हो गया?
  15. आपका कोई न कोई रिश्तेदार मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में जरूर होगा और आप शूटिंग देखने की ढींग जरूर हाँकते होंगे।
  16. पनवाड़ी और नाई की दुकान पर आपकी दूसरे लोगों से राजनीतिक और क्रिकेट के मसले पर बहस जरूर होती होगी।
  17. आप “शहर बर्बाद हो गया है “ का नारा बुलंद करते हैं, लेकिन कभी भी शहर को ठीक करने या छोड़कर जाने की नहीं सोचते।
  18. ड्राइविंग करते समय आप अपने से कम वाहन (कार चलते समय, स्कूटर वालों, स्कूटर चलते समय साइकल वालों और साइकल चलते समय पैदल) वालों को ही ट्रैफिक जाम का जिम्मेदार ठहराते हैं।
  19. पत्नी का टीवी सीरियल देखना आपको टाइम वेस्ट लगता है, लेकिन अँग्रेज़ी फिल्मों के चैनल में ‘उस’ इकलौते सीन के लिए घंटे टीवी पर टकटकी लगाकर उल्लुओं की तरह जागना  आपको सही लगता है।
  20. आप मोहल्ले के सब्ज़ीवाले, जमादार, ठेले वाले और दुकानदार से कम से कम एक बार जरूर भिड़े हों।
  21. बॉस के कमरे से डांट खाकर निकलते हुए भी आप अपनी रौबीली चाल में कोई कमी नहीं आने देते।
  22. आपको अपनी बीबी फिजूलखर्च दिखती है, लेकिन आप अपने मसाला/पान/बीड़ी/सिगरेट के खर्चों पर कभी कोई बात बर्दाश्त नहीं कर सकते।
  23. आपको शहर चाहे जितना भी गंदा दिखे, नाले के किनारे ठेले वाले से सामान लेकर खाना आपको पूरी तरह से हायजनिक  लगता है।
  24. शादी बारात में आप धक्का मुक्की करके, खाने कि प्लेट जुगाड़ ही लेते हैं।
  25. बच्चे के स्कूल की पेरेंट टीचर मीटिंग में आपका ध्यान (महिला) टीचर के सरकते दुपट्टे पर ही अटका रहता है।
  26. बिना हैडलाइट वाली गाड़ी चलते हुए, एक्सिडेंट होने पर मोहल्ले के खंबे को ही दोष देंगे।
  27. बच्चो के गणित के सवाल हल न कर पाने की दशा में, आप किताब को ही दोष देते हो।
  28. टाइम पास करने के लिए आप रोंग नंबर डायल करते हो।
  29. सामने वाले के धाराप्रवाह अँग्रेजी बोलने पर आप होंठ सी कर,  येस येस करते हो।
  30. पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, उसके बारे में आप, पड़ोसी से ज्यादा जानकारी रखते हैं।

आपको यदि और भी कोई लक्षण दिखाई देते हैं तो जरूर बताइएगा। तो फिर आते रहिए और पढ़ते रहिए आपका पसंदीदा ब्लॉग।

 

विश्व रेडियो दिवस पर विशेष

आज यानि 13 फरवरी 2012 को युनेस्को द्वारा पहली बार विश्व रेडियो दिवस मनाया जा रहा है। रेडियो से हमारी भी ढेर सारी पुरानी यादें जुड़ी है, लीजिये पेश है, मेरी कुछ पुरानी यादें, चलिये इसी बहाने हम रेडियो को याद कर लेते हैं।

पुराने जमाने मे जिन लोगों के पास रेडियो हुआ करता था, वो अपने घर के बाहर एक जाली वाला तार टाँगा करते थे, अब ये बैटर रिसेप्शन के लिये था या फिर दिखावा, मेरे को नही पता. लेकिन जिनके घर की बालकनी या आंगन मे जाली वाला तार टंगा रहता था, उनको लोग बड़ा सम्मान देते थे और उनकी तरफ बहुत इज्जत की निगाह से देखा करते थे. लोग बाग भी अपने रेडियो का दिखावा करने मे पीछे कहाँ रहते थे. मुझे याद है हमारे घर मे भी एक रेडियो हुआ करता था, जिस पर सिर्फ और सिर्फ दादाजी का हक हुआ करता था. मजाल है जो कोई दूसरा हाथ भी लगा दे, दादाजी अपनी छड़ी से कुटाई कर दिया करते थे. अक्सर दादा दादी मे रेडियो को लेकर बवाल हुआ करता था. दादाजी अपने रेडियो का दिखावा करने के लिये अक्सर लोगो को घर बुलाते,पहले चाय नाश्ता और फिर खाना तक खिलवाते थे. लोग बाग भी समाचार सुनने का बहाना बनाकर आते, चाय नाश्ता करते, भले ही रेडियों मे शास्त्रीय गायन या कर्नाटक संगीत सभा चल रही होती, बाकायदा डटे रहते और खाना डकारकर ही जाते….मुफ्त का खाना कौन छोड़ता है भला? खैर जमाना बदला, रेडियो गया, ट्रान्जिस्टर आये. अब लोग बाग अपने साथ ट्रान्जिस्टर लेकर चलने लगे, जिसको देखो कान से लगाकर सुनता था, क्या सुनता था? ये तो उसको भी नही पता. लोगबाग दिशा मैदान को जाते तो ट्रान्जिस्टर ले जाना ना भूलते, लता के गीत हों या रफी के नगमे या फिर इन्दु वाही के समाचार, बाकायदा पूरा पूरा सुनते. घरों मे पंगे बढ गये थे, लोगबाग लैट्रिन मे भी ट्रान्जिस्टर ले जाते और घन्टों वंही बैठे रहते. हमारे यहाँ भी काफी पंगे होते, लेकिन मसला दूसरा था. पिताजी एक ट्रांजिस्टर ले आये थे और उससे दादाजी के रेडियों की पूछ कम हो गयी थी. दादाजी रोज़ाना ट्रांजिस्टर की कमिया गिनाते. अक्सर ट्रांजिस्टर को अकेला पाकर अपनी छड़ी से धुनाई करते. अब उसका क्या बिगड़ने वाला था. खैर वो जमाना भी गया. दादाजी भी जन्नतनशीं हुए और रेडियों भी अपनी कब्रगाह मे चला गया. अब जमाना आया टेलीविजन का.


Radio aur TV

बात उन दिनो की है, जब टेलीविजन भी नही आया था.मै गर्मियों की छुट्टी मे अपनी बुआ के यहाँ उल्हास नगर(मुम्बई के पास) गया था और पहली बार टेलीविजन को देखा. बहुत आश्चर्य चकित हो गया कि कैसे एक बक्से के अन्दर बैठे लोग हमसे बात करते है.हमारे बुआ के लड़कों ने भी हमारी नासमझी का फायदा उठाया और ना जाने क्या क्या गप्पे हाँकी, और डेली डेली हमको गप्पों का नया डोज पिलाते रहे. खैर हम एक अच्छे बच्चे की तरह से सारी गप्पे झेलते रहे और अपने दिमाग मे सहेजते रहे, क्यो? अरे भाई कानपुर जाकर सारी गप्पों मे नमक मिर्च लगाकर अपने दोस्तों को जो सुनाना था. खैर जनाब! हम कानपुर पहुँचे और अपने दोस्तो यारों को कहानी सुनाई, सुक्खी तो बिखर गया, बोला ये तो हो ही नही सकता कि रोजाना कोई छत पर लगे एक डन्डे मे लगे छेदों मे से आपके घर मे घुस आये और एक बक्से मे बैठकर आपसे बाते करने लगे. धीरू और दूसरों ने भी हाँ मे हाँ मिलाई. लेकिन हम देख चुके थे, इसलिये टस से मस ना हुए, काफी झगड़ा हुआ,लड़ाईयाँ हुई, हम लोग गुटों मे बँटे, फिर भी लोग मानने को तैयार ही नही हुए. हमने भी समझाना छोड़ दिया और सबकुछ वक्त पर छोड़ दिया गया. धीरे धीरे समय बदला और टीवी ने पाँव पसारे. लखनऊ दूरदर्शन केन्द्र बना. मोहल्ले मे पहला टीवी हमारे घर पर लगा, मोहल्ले के लड़कों ने टीवी के मसले पर हमारी सारी गप्पों को तवज्जो देनी शुरु कर दी थी.

अब लोगों की बालकनी से जाली वाली तारे हटनी लगी और उनकी जगह ली छतों पर बड़े बड़े टेलीविजन के एन्टीना ने. फिर भी मोहल्ले मे इक्का दुक्का एन्टीना ही दिखते थे. हम लोग छत पर जाकर इन्टिना गिनने का खेल खेलते. लोगो का रूतबा एन्टिना से जाना जाता, जिसका एन्टीना ज्यादा ऊँचा, उसकी उतनी ज्यादा हैंकड़ी. वर्माजी का सारा टाइम तो छत पर ये देखने मे लग जाता था कि उनका एन्टीना बगल वाले शर्मा जी के एन्टीना से नीचा ना रहे. कई बार तो इस चक्कर मे ही वर्माजी एन्टीना समेत छत से टपके थे. हम लोगो को पतंग उड़ाने मे दिक्कतो का सामना करना पड़ता था, अपनी छत से पतंग उड़ सके तो शर्मा जी के एन्टिने से अटकती, वहाँ से बचो तो वर्मा जी के एन्टिने मे पतंग अटक जाती थी, ना जाने कितनी पतंगे शहीद हुई, अब आमिर खान को स्टोरी सुनाये तो वो शायद पिक्चर बना दे, इस पर. कुल मिलाकर वानर सेना को परेशानी आती थी.

अब लोगों का लाइफस्टाइल बदल रहा था. अब लोगो की रविवार की शामें घर के अन्दर ही बीता करती..क्यों? अरे भई सन्डे को फीचर फिल्म जो आती थी. हमारे टीवी की कहानी भी सुन लीजिये…..हमारे घर भी टीवी का पदार्पण हुआ, टीवी का स्थापन किया गया,बाकायदा पूजा पाठ और नारियल तक फोड़ा गया. छोटे बच्चों जिसमे हम भी शामिल थे, को बाकायदा ताकीद की गयी कि टेलीविजन के आसपास भी ना फटकें, वरना टांगे तोड़कर दुछत्ती(जिस सज्जन को दुछ्त्ती का मतलब ना समझ आये वो फुरसतिया जी से सवाल पूछे ) पर रख दी जायेंगी. टेलीविजन और उसमे आने वाले प्रोग्रामों के खिलाफ बोलना, बेअदबी और बदतमीजी समझी जाती थी. मेरा चचेरा भाई काफी एडवेन्चरस था, सो उसने टेलीविजन के बटनो से छेड़छाड़ की, जिससे चैनल का रिसेप्शन खराब हुआ, टीवी वाले इन्जीनियर अंकल को बुलाना पड़ा, क्योंकि टीवी के बटन वगैरहा छेड़कर चाचाजी कोई रिस्क नही लेना चाहते थे, खैर अंकल आये, दो मिनट का काम दो घन्टे मे किया, जिसमे से एक घन्टा अन्ठावन मिनट तो ये समझाने मे लगा दिये कि टीवी कोई मामूली चीज नही है, छेड़छाड़ मत किया करे, इसबीच दो चार बार चाय नाश्ता डकार गये सो अलग.चाचाजी ने टीवी मे छेड़खानी करने वाले की खोज के लिये एक कमेटी बनाई, कमेटी को विश्वस्त सूत्रों(यानि मै)से पता चला कि चचेरे भाई ने ये नामाकूल हरकत की थी और नतीजतन चचेरे भाई की बहुत जबरदस्त धुनाई हुए, सच पूछो तो दिल को बहुत सकुन मिला, क्योंकि हमेशा उसके पंगो की वजह से खांमखा मै ही पिटता रहता था.ये एक सबक था, हम सबके लिये उसके बाद से हम लोग टेलीविजन से कट लिये,ठीक वैसे जैसे स्कूल मे दिये होमवर्क से कटे हुए थे

अब चाचाजी की पूरी की पूरी शामें टेलीविजन के सामने निकलने लगी, चाहे चौपाल हो या कामगार सभा, चाचाजी सब कुछ देखते और टेलीविजन तभी बन्द होता जब रात्रि विचार बिन्दु का वक्त आता. चाचाजी भारी मन से टीवी बन्द करते, टीवी का शटर बन्द करते,उस पर कपड़ा चढाते……और उसके बाद ही डिनर करते और इस बीच चाची भिनभिनाती रहती, लेकिन कुछ कह नही पाती, क्योंकि चाचाजी टेलीविजन के खिलाफ कुछ भी सुनना पसन्द नही करते थे.अब चाचाजी का एक नया शगल शुरु हो गया था, दादाजी की तरह लोगों को पकड़ पकड़ लाना और टेलीविजन के प्रोग्राम दिखाना, आफ कोर्स चाय नाश्ता तो पैकेज डील मे शामिल था. हाँ टेलीविजन की आवाज कम ज्यादा करने की जिम्मेदार अभी भी चाचाजी पर ही थी और रिमोट कन्ट्रोल? ये किस चिड़िया का नाम है? उस जमाने मे रिमोट कन्ट्रोल नही हुआ करता था.लोगबाग भी आते, टीवी की तारीफ करते,चाय नाश्ता डकारते और निकल लेते.

इसबीच बदकिस्मती से लखनऊ दूरदर्शन वालों ने बच्चों के लिये भी एक प्रोग्राम देना शुरु कर दिया, नतीजतन, मोहल्ले के सारे बच्चों को पकड़ा जाता, गिनती होती(प्रोग्राम के शुरु मे और आखिरी मे दोनो बार)और टेलीविजन के आगे बिठा दिया जाता और कहा जाता कि चुपचाप बैठकर टेलीविजन देखो. अब देखे तो क्या देखें कुछ पल्ले पड़ता तब ना? दूरदर्शन वाले भी पता नही कहाँ कहाँ से पकड़ पकड़ कर लोगो से टेलीविजन प्रोग्राम करवाते थे, जो काफी समय तो अपनी तारीफ मे बिताते, कुछ बचता तो बच्चों वही पकी पकाई घिसी पिटी कविताये वगैरहा पढते, हम लोग झेले भी तो कैसे? लेकिन चाचाजी के डन्डे का डर था, हम लोग चुपचाप टेलीविजन देखते, ये बात और थी कि सबसे आगे बैठेने वाले धीरू को चिकोटी काटते रहते, जिससे वो चिल्लाता और चाचाजी के डन्डे का शिकार होता. धीरे धीरे धीरू ने चिकोटी पर रियेक्शन करना बन्द कर दिया, क्यों? अमां यार! चिकोटी का दर्द, डन्डे के दर्द से काफी कम होता है, इसलिये. रविवार की शाम, घर की महिलाओं के लिये खासी परेशानी भरी होती, क्योंकि रविवार को फीचर फिल्म आती और चाचाजी पूरे मोहल्ले पहले से ही निमंत्रण दे आते, लगे हाथो आने वाली फिल्म की तारीफ करके लोगो मे जिज्ञासा भर आते. घर लौटते समय टीवी देखने आने वाले लोगो के लिये लइया,चना चबैला और मुंगफली का इन्तजाम करना ना भूलते.

तय समय पर सभी लोग लइया चना और मुंगफली लेकर फिल्म देखते, फिल्म के दृश्यानुसार हँसते रोते. हँसते समय ज्यादा मुँगफली खाते, और रोते समय चादरों को खराब करते.मुझे याद है बसन्तु की अम्मा अपने बच्चे को सुस्सु और पाटी भी टेलीविजन के सामने कराई थी, अब टेलीविजन के लिये ये दिन भी देखना पड़ेगा, किसने सोचा था…. कुछ लोग फिल्म खत्म होने के बाद भी डिनर खाने के लिये लटके रहते, बहाना होता, समाचार देखने का. घर की महिलायें, मनाती कि हफ्ते मे से रविवार को निकाल दिया जाना चाहिये, क्यों? अरे यार! बाहर के लोग फिल्म देखे और घर की महिलाये चाय नाश्ता बनाती रहें ये कहाँ का इन्साफ है? फिल्म के बाद घर कूड़ाघर बन जाता. कैसे? अमां यार, मुंगफली के छिलके लोग अपने साथ ले जाते क्या? लेकिन दूरदर्शन वालो को इसका कहाँ इल्म था, उन्होने तो हफ्ते मे दो दो फिल्मे देनी शुरु कर दी, वृहस्पतिवार का चित्रहार और सोमवार का मद्रासी और अन्यभाषा के गानों चित्रमाला सो अलग. अब टीवी देखने आने वाले लोगो की डिमान्ड भी बढ रही थी, लोग दुहाई देते, वर्मा जी तो टीवी दिखाने के लिये बुलाते है और नाश्ते मे हलवा भी खिलाते है. चाचाजी की भृकुटि तन जाती थी, नतीजतन भाग भाग कर जलेबी वगैरहा हमे लानी पड़ती थी. अब कब तक झेलते ये सब?

अब पानी सर से ऊपर गुजर रहा था, सो चाचाजी को छोड़कर सारे लोगों ने प्लानिंग बनाई की किसी तरह से टीवी को खराब कर दिया जाय, टीवी वाले अंकल को सैट किया गया, उन्होने झूठी मूठी बताया कि एक स्पेयर पार्ट खराब हो गया है, आने मे एक महीना लगेगा…… तब कंही जाकर एक महीने के लिये टीवी खराब रहा था……सारे परिवार ने, सिवाय चाचाजी को छोड़कर, चैन की सांस ली. इसबीच चाचाजी क्या करते रहे? अरे यार! शहर भर के टेलीविजन की दुकानों मे स्पेयर पार्ट लिये लिये ढूंढते रहे, अब उनको स्पेयर पार्ट तो तब ही मिलता ना जब वो टेलीविजन का होता, हम लोगो ने उनको पुराने खराब रेडियों का स्पेयर पार्ट टिकाया था.

धीरे धीरे वो जमाना भी बीता. अब जमाना आया वीडियो का…………..इसकी कहानी फिर कभी…अभी के लिये सिर्फ इतना ही, आप भी अपने संस्मरण लिखना मत भूलियेगा.