अकबर इलाहाबादी की कुछ गजलें.

हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है

ना-तर्जुबाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है

वाइज़= धर्मोपदेशक

उस मै से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मै से, दिल ही में जो खिंचती है

मक़सूद= मनोरथ

वां दिल में कि सदमे दो यां जी में के सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है अंवार-ए-इलाही से
हर सांस ये कहती हम हैं तो ख़ुदा भी है

अंवार-ए-इलाही= दैवी प्रकाश

सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहे काफ़िर, अल्लाह की मऱ्जी है

फ़ितरत= प्राकृति

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सांस लेते हुए भी डरता हूं
ये न समझे कि आह करता हूं

बहर-ए-हस्ती में हूं मिसाल-ए-हुबाब
मिट ही जाता हूं जब उभरता हूं

बहर-ए-हस्ती=जीवन का समुद्र; मिसाल-ए-हुबाब= बुलबुले की तरह

इतनी आज़ादी भी गऩीमत है
सांस लेता हूं बात करता हूं

शेख़ साहब ख़ुदा से डरते हो
मैं तो अंगरेज़ों ही से डरता हूं

आप क्या पूछते हो मेरा मिज़ाज
शुक्र अल्लाह का है मरता हूं

ये बड़ा ऐब मुझ में है ‘अकबर’
दिल में जो आये कह गुज़रता हूं

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दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बन्दे तो मिले अल्लाह का बन्दा न मिला

बज़्म-ए-यारां से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला

बज़्म-ए-यारां=मित्रसभा; बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा; मायूस=निराश; आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार
गुल के ख्व़ाहां तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला

ख्व़ाहां=चाहने वाले; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले;
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक

वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शाद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला

मुर्शाद=गुस्र्; कलीसा=चर्च,गिरजाघर

सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शैख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला

गज़ट=समाचार पत्र
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दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाज़ार से गुज़रा हूं, ख़रीदार नहीं हूं

तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला

ज़िन्दा हूं मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चांद की हूं होश में, होशियार नहीं हूं

ज़ीस्त= जीवन; लज़्ज़त= स्वाद

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊंगा बेलौस
साया हूं फ़क़्त, नक़्श बेदीवार नहीं हूं

ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; बेलौस= लांछन के बिना
फ़क़्त= केवल; नक़्श= चिन्ह, चित्र

अफ़सुर्दा हूं इबारत से, दवा की नहीं हाजित
गम़ का मुझे ये जो’फ़ है, बीमार नहीं हूं

अफ़सुर्दा= निराश; इबारत= शब्द, लेख; हाजित(हाजत)= आवश्यकता
जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी,क्षीणता

वो गुल हूं ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूं किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूं

गुल=फूल; ख़िज़ां= पतझड़; ख़ार= कांटा

यारब मुझे महफ़ूस रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूं

महफ़ूस= सुरक्षित; इनायत= कृपा; तलबगार= इच्छुक

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूं

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़=निराशा और क्षीणता;काफ़िर=नास्तिक; दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला

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One Response to “अकबर इलाहाबादी की कुछ गजलें.”

  1. very good