मुझको यक़ीं है….

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चांद में परियां रहती थीं

इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया
इक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं

इक ये दिन जब लाखों गम़ और काल पड़ा है आंसू का
इक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियां बहती थीं

इक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं
इक वो दिन जब ‘आओ खेलें’ सारी गलियां कहती थीं

इक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
इक वो दिन जब शाख़ों की भी पलकें बोझल रहती थीं

इक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं
इक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं

इक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामां रहता है
इक वो घर जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं
-जावेद अख्तर

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4 Responses to “मुझको यक़ीं है….”

  1. Tempering with the National Anthem

  2. Aapki poem is too gud..

  3. अरे भइया हमरी नही है,
    इ तो अपने जावेद अख्तर साहब की है.
    उन्होने सुन लिया तो बहुत मार पड़ेगी.

  4. penlac

    penlac