एक पाठक की भेजी गज़ल
हमारे एक संवेदनशील पाठक है, हमारे नामाराशी है, “जितेन्द्र प्रताप सिंह राही”, उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ से है. पेशे से वैब डिजाइनर है. अभी अभी आसपास ही इन्होने इश्क मे धोखा खाया है. कहते है इश्क मे नाकामयाबी इन्सान को कामयाब शायर बना देती है. इन्होने मुझे कुछ गज़ले भेजीं थी, और उन्हे मेरा पन्ना पर छापने की गुज़ारिश की थी.
आप भी पढिये उनकी गज़लें. हो सके तो उनको कुछ सांत्वना के दो शब्द जरूर लिखियेगा
शाम है हँसकर बिता लीजिये
ऐसे डर कर ना गुमसुम रहा कीजिये
क्या पता कल किसे मौत आये
रात भर साथ अपना निभा लीजिये
है कयामत के दीदार की आरज़ू
फिर से चेहरे से घूँघट हटा लीजिये
मुझको कुछ भी मय्यसर हुआ ना सही
आखिरी जम हँसकर पिला दीजिये
हम तलबगार होंगे तेरे उम्र भर
बस हकीकत तो अपनी बयां कीजिये
-जितेन्द्र प्रताप सिंह “राही
तन्हा तन्हा बैठा हूँ
तन्हा ही कुछ सोच रहा हूँ
खोने को कुछ पास नही
जाने क्या मै ढूंढ रहा हूँ
ओ अपना था क्या मालूम?
एक पहली बूझ रहा हूँ
है ये जाने कैसा मोड़
खुद को खुद मे ढूँढ रहा हूँ
अपना किसी से द्वंद नही
परछाई से जूझ रहा हूँ
आगे जाने अब क्या हो
पैमाने मे डूब रहा हूँ
-जितेन्द्र प्रताप सिंह “राही
इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के … राही जी की गजलों के लिए धन्यवाद.
सुनील
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दिल का दर्द दिल ही जाने