अनुगूँज १३ :संगति की गति


हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है , समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है ।
— महाभारत

अनुगूँज आयोजन
अनुगूँज १३ :संगति की गति Akshargram Anugunj

महाभारत मे कहा गया उपरोक्त वाक्य सौ प्रतिशत सही है, कैसे? आइये मै आपको बताता हूँ. जीवन के सफ़र मे आपके ना जाने कितने ऐसे हमसफ़र मिलते है, जिनकी संगति और कुसंगति मे पड़कर आप ना जाने कितने अच्छे बुरे अनुभवो से गुजरते है, तो जनाब पेश है कुछ ऐसे अनुभव हमारे जीवन से…

बचपन से जवानी की तरफ़ कदम रखते समय अक्सर हम लोग हर जगह से भगा दिये जाते थे, बच्चों के बीच खेल नही सकते, वो भगा देते थे, बड़े लोग अपनी बातचीत के बीच मे बैठने नही देते थे, क्योंकि उन्हे डर होता , कि बच्चा अब बड़ा हो गया है, सारी बातचीत समझ लेगा तो जनाब वहाँ से भी हमे कन्टी कर दिया जाता था. ले देकर अपनी वानर सेना बचती जिनके सारे अनुभव एक जैसे होते. लेकिन इस उमर मे मूड भी बहुत जल्दी खराब होता था, बात बात पर झगड़ा और हर मसले पर तनातनी. परिणामस्वरुप अक्सर अकेले रहना पड़ता था, इसी अकेलेपन मे साथी बनी किताबे, ना जाने कितनी अच्छी बुरी किताबे पढी. तो जनाब सबसे पहले बात कर ली जाय कुसंगति की…

पढने का तो शौंक बहुत था, अक्सर किताबे पढा करते, लोटपोट,मधुमुस्कान, दीवाना,इन्द्रजाल कामिक्स से बात शुरु हुई तो राजन इकबाल के बाल जासूसी नावेल्स से होती हुई, रानू,गुलशन नन्दा के सामाजिक नावेल्स से गुजरती हुई, वेद प्रकाश शर्मा और दूसरे जासूसी नावेल्स पर जाकर खत्म हुई. बुक शाप वाले से भी दोस्ती गांठ ली थी, वो एक पचपन साठ साल का बुड्डा था, मेरे लिये अक्सर मेरी पसन्द के नावेल ढूँढ कर रखता. एक दिन उसने मेरे को एक पालीथीन मे लिपटी हुई एक किताब थमाई और बोला अकेले मे जाकर पढना, बहुत धांसू है. अब जिज्ञासू दिमाग, इन्तजार नही हो पा रहा था, भागता हुआ घर पहुँचा, छत पर एकान्त की जगह तलाशी और फ़िर पालीथीन को खोलकर देखा तो सन्न रह गया…. वो मस्तराम डाइजेस्ट थी (यह एक वयस्क पत्रिका/नावेल था, इसके बारे मे विस्तार से खुलासा फ़ुरसतिया जी करेंगे) जिन्दगी मे पहली बार ऐसी कोई किताब देखी थी, दिमाग कह रहा था, मत पढ, मगर दिल था, कि बोल रहा था, पढ पढ, मजे ले ले, यही दिन है ….अब क्या करता? दिल की जीत हुई, दिमाग हार गया, क्योंकि उस समय की अवस्था मे दिमाग की बातों पर ध्यान नही दे पाता. खैर जनाब काफ़ी दिन तक मै आत्मग्लानि महसूस करता रहा, लोगो से कटा कटा रहने लगा. दरअसल किताब वाले बुड्डे ने जानबूझ कर मेरे को ये किताब टिकाई थी, वो भी फ़्री मे, ताकि बाद मे मै उसको इस किताब के किराये के मुंहमांगे दाम दे सकूं. लेकिन शुरु मे बालमन इस बात को नही समझ सका, और मै उसके जाल मे ऐसा फ़ंसा कि लगातार फ़ंसता चला गया. काफ़ी दिनो तक मैने वे किताबे पढीं.जब पढता तब तो अच्छी लगती, लेकिन जैसे ही उन किताबों से दूर होता, तो बहुत ग्लानि होती. धीरे धीरे मैने अपने मन को समझाया और धीरे धीरे उस किताब वाले से किनारा किया…ये मेरे जीवन की पहली कुसंगति थी.

आइये अब अच्छी संगति की बात कर ली जाय,जेब खर्च तो लिमिटेड मिलता था, इसलिये किताबे कहाँ से पढी जाय, रास्ता निकाला गया, रामकृष्ण मिशन की लाइब्रेरी से.अच्छी किताबो को पढने के लिये प्रेरित करने मे एक स्वामीजी ने काफ़ी मदद की. उनसे मेरे रिलेशन काफ़ी दोस्ताना हो गये थे.वे रामकृष्ण मिशन पुस्तकालय मे पुस्तकालयाध्य्क्ष थे. मै रोजाना लाइब्रेरी मे जाता, चार बजे लाइब्रेरी खुलती थी और शायद सात बजे बन्द होती. मै कुछ घन्टे तो किताबों मे उलझा रहता, उसके बाद एक घन्टा स्वामीजी और हम विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करते. अक्सर चर्चायें धर्म,राजनीति, समाज और मानवीय संवेदनात्मक रिश्तो पर होती. मै बहुत सवाल पूछता था, सवाल दिमाग मे आया नही कि स्वामीजी पर दाग देता था,स्वामी जी अक्सर मेरे ऊलजलूल सवालों का धेर्यपूर्वक जवाब देते. सारे सवालो को उदाहरण पूर्वक समझाते, कभी कभी सम्बंधित कहानी किस्से भी सुनाते. मेरे कई विचिलित कर देने सवालों (सेक्स,यौन रहस्य इत्यादि) पर भी स्वामीजी के चेहरे पर शिकन ना आती. सवाल जवाब के बाद हम किसी एक विषय पर बहस करते.हम अक्सर बहस का विषय एक दिन पहले तय कर लेते, मै उस विषय पर काफ़ी तैयारी करके जाता. लेकिन हमेशा ही मै स्वामी जी से उन्नीस ही रहता.हम अक्सर बहस करते, कई कई बार मै उन्हे कनवीन्स ना कर पाने की अवस्था मे, आवेश मे आकर उठकर चला आता, लेकिन स्वामीजी थे कि कभी नाराज ही नही होते थे, अगले दिन फ़िर मुस्कराते हुए मिलते. हमेशा मेरे को समझाते कि अभी तो तुम्हारे जीवन की शुरुवात है.गुस्सा करके जब तुम आपा खोते हो, तो तुम सोचने समझने की अवस्था मे नही रहते. इसलिये गुस्से को कन्ट्रोल करना सीखो. आज ना तो स्वामी जी है, ना उनका साथ, लेकिन एक बात जरुर है कि आज भी जब मै गुस्से (बहुत कम ऐसे मौके आते है) मे आता हूँ तो स्वामीजी का चेहरा मेरे सामने आ जाता है, और मै अपना सारा गुस्सा भूल जाता हूँ. आज मै सोचता हूँ, यदि मेरे को उन स्वामी की संगति ना मिली होती तो मै शायद जीवन के अनेक बातो को इतनी सहजता से ना समझ पाता.

सच ही कहते है, अच्छी संगति जीवन को संवारती है, और कुसंगति बिगाडती है.आपके अनुभव क्या कहते है…

2 Responses to “अनुगूँज १३ :संगति की गति”

  1. हर अनुभव का धनात्मक पहलू देखा करो भाई.
    देखो अगर तुम बचपन में अपने दिल की बात न मान के
    दिमाग की मानते तथा तथाकथित बुरी किताबें न पढते तो
    एक पैरा न लिख पाते.रही बात स्वामीजी की तो स्वामी का
    साथ तो अभी भी सुलभ है तुम्हें.जो बातें मन करो पूछो
    वे बतायेंगे.कोई उत्तेजित होगा तो हम भी मौज लेंगे.ज्यादा
    कुछ होगा तो ममला निपटाने के लिये हम हैं न.यह बडा़
    पुन्य का काम किया जो ये लेख लिखा.राजेश दुआ करो
    कि जीतू के ब्लाग पर बिना लिखे ही टिप्पणियां
    बरसतीं रहें.

  2. जीतू जी इन गलियों से कौन नहीं गुजरा। हर आदमी अपने अपने तरीके से अपने अपने नतीजों पर पहुँचता है। कल ही किसी से बात हो रही थी कि बचपन जवानी में माँ बाप हजार चीजें समझाते हैं – वे इसलिए कि वे इस दौर से गुजर चुके होते हैं पर ओ युवा युवा कहाँ समझता है