काका हाथरसी की याद

काका हाथरसी, हिन्दी हास्य व्यंग कविताओं के पर्याय है। वे आज हमारे बीच नही है, लेकिन उनकी हास्य कविताए जिन्हे वे फुलझडियां कहा करते थे, सदैव हमे गुदगुदाती रहेंगी। होली के मौके पर पेश है उनके द्वारा लिखी गयी एक कविता, जो मुझे बहुत अच्छी लगती है।काका की इस कविता से हम होली के हुड़दंग की घोषणा करते है और हिन्दी ब्लॉगिंग बन्धुओ से निवेदन है कि अधिक से अधिक हास्य रस से ओतप्रोत लेख लिखें, ताकि सभी की होली ज्यादा से ज्यादा रंगीन हो।


नाम-रूप का भेद

नाम – रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल – अक्ल कुछ और
शक्ल – अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने
कहँ ‘ काका ‘ कवि , दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर

मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में –
ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में
कहँ ‘ काका ‘ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे

देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे
कहँ ‘ काका ‘ कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे

पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी
बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी
कहँ ‘ काका ‘ कविराय , करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा

चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘ काका ‘, बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं

बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा – दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘ काका ‘ कवि , भीमसेन पिद्दी से दिखते
कविवर ‘ दिनकर ’ छायावदी कविता लिखते

तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन – भर वंशी न बजाई
कहँ ‘ काका ‘ कवि , फूलचंद जी इतने भारी
दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी

खट्टे – खारी – खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन
चिलगोजा से नैन , शांता करतीं दंगा
नल पर नहातीं , गोदावरी , गोमती , गंगा
कहँ ‘ काका ‘ कवि , लज्जावती दहाड़ रही हैं
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं

अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया
‘ काका ‘ कोई – कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा
काका हाथरसी
काका की और रचनाएं पढने के लिये इन्डिया वर्ल्ड डाट नैट पर जाएं।(रजनीश भाई, भूल याद दिलाने के लिये धन्यवाद)

2 Responses to “काका हाथरसी की याद”

  1. वाह जीतू भैय्या,

    मजा आ गया!

    अभी तक सुनते तो आ ही रहे थे ये कविता “काका” के ही श्रीमुख से (एक ऑडियो कैसेट से भाई), अभी पढ भी ली.

    याद ताजा हो गई.

  2. जीतू भैया, क्या अच्छा होता यदि इस कविता का इंटरनेट श्रोत भी डाल देते, तो जिन लोगों को और कवितायें भी पढनी हैं, वे भी पढ सकते और थोडा हमारी साइट का प्रचार भी होता।

    http://www.india-world.net/entertainment/humor/hindi/kaka/naam.html

    वैसे यह कविता (व्यंग्य) मुझे बहुत प्रिय है:
    http://www.india-world.net/op-ed/issues/shaheed.html