आरक्षण: आखिर कब तक?

इधर फिर से आरक्षण की बात शुरु हो गयी है। उच्च शिक्षण संस्थानो जैसे आई आई टी और आई आई एम में आरक्षण को 49% प्रतिशत से अधिक करने की चर्चा मात्र से छात्रों,शिक्षाविदों और टीवी चैनलों पर वाद विवाद शुरु हो गया है।थकेले अर्जुन सिंह के पास कोई दाँव नही था, चलाने के लिये, इसलिये इतिहास मे दर्ज होने के लिये आखिरी दाँव चला है। पता नही ये सठियाई उम्र का खेल है या फिर सोची समझी राजनीति, लेकिन कुछ भी हो है, बहुत गन्दी।मगर क्या करें “गन्दा है पर धन्धा है ये“।

अपने छोटे से फायदे के लिये ये राजनीतिज्ञ कुछ भी कर सकते है।अब अर्जुन सिंह को ही लो, उन्हे क्या हासिल हुआ? जब बीजेपी के मुरली मनोहर जोशी, शिक्षा का भगुवाकरण करने की कोशिश मे जुटे हुए थे, तब कांग्रेस वाले चीख चीख कर बवाल मचा रहे थे, अब देखिये, अर्जुन सिंह ने आते ही भगुवाकरण को मुसलमानो के तुष्टीकरण मे बदल दिया। बीच बीच मे मार्क्सवादियों ने भी अपनी अपनी चलाई। चलो यहाँ तक तो ठीक था लेकिन पंगा अब शुरु हुआ है, जब आरक्षण का भूत फिर से बक्से से बाहर निकला है, इसके जिम्मेदार है अर्जुन सिंह।

आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है तो उसे फिर से पीछे धकेलने की साजिश है ये।समाज को दो हिस्सों मे बाँटने की साजिश है।मै तो आरक्षण के औचित्य पर ही सवाल उठाता हूँ।आजादी के पचास साल बाद भी यदि हम आरक्षण की राजनीति करते रहे तो लानत है हम पर। मेरे कुछ सवाल है, शायद कोई आरक्षण समर्थक जवाब देना चाहे:

  • क्या दलित आज भी पिछड़े हुए है? यदि पिछड़े हुए है तो आजतक के आरक्षण का किया धरा सब पानी मे गया। है ना? और यदि नही पिछड़े है तो काहे का आरक्षण?
  • देश मे एक व्यक्ति एक संविधान क्यों नही लागू होता?
  • आरक्षण से दलित वर्ग को आज तक कितना लाभ हुआ?
  • हम हर जगह खुली प्रतियोगिता की बात करते है, तो फिर सभी नागरिको समान प्रतियोगिता का अवसर क्यों नही देते?
  • कब तक हम वर्ग विशेष को आरक्षण प्लेट मे रखकर देते रहेंगे?
  • सामजिक न्याय के नाम पर हम कब तक योग्य प्रतिभा का गला घोंटते रहेंगे?
  • कब तक ये वोट की गन्दी राजनीति चलती रहेगी?

अर्जुन सिंह कोई समय सीमा निर्धारित कर सकते है क्या? कि कब तक दलित वर्ग और पिछड़ा वर्ग समाज की बराबरी कर सकेगा। यदि हाँ तो समय सीमा निर्धारित करें और यदि नही तो आरक्षण का कोई औचित्य नही।उच्च संस्थानों मे आरक्षण लाकर हम उन संस्थानों की शिक्षा स्तर के साथ समझौता करेंगे। इससे विश्व बाजार मे हमारे प्रोफ़ेशनल्स की कीमत गिरेगी ही। दूसरी तरफ़ आरक्षण लाकर हम परोक्ष रूप से छात्रों को विदेश मे पढने के लिये प्रोत्साहित करेंगे। जिसका मतलब ये हुआ कि एक तरफ़ तो हम विदेशी मुद्रा खर्च करेंगे और दूसरी तरफ़ प्रतिभा पलायन का रास्ता खोल रहे हैं।

इस मसले का सीधा सीधा समाधान ये है कि अर्जुन सिंह को आरक्षण विरोधी छात्रों के समुह मे छोड़ दिया जाना चाहिये(बिना सुरक्षा के)। वे अगर छात्रों को कन्वीन्स कर सकें तो ठीक, नही तो अर्जुन सिंह तो पूरी तरह से कन्वीन्स कर ही दिए जायेंगे।आप अपनी राय टिप्पणी मे जरुर व्यक्त करें।

26 Responses to “आरक्षण: आखिर कब तक?”

  1. इस मसले का सीधा सीधा समाधान ये है कि अर्जुन सिंह को आरक्षण विरोधी छात्रों के समुह मे छोड़ दिया जाना चाहिये(बिना सुरक्षा के)। वे अगर छात्रों को कन्वीन्स कर सकें तो ठीक, नही तो अर्जुन सिंह तो पूरी तरह से कन्वीन्स कर ही दिए जायेंगे।

    भईये, मैं भी यही ठीक समझता हूँ। आज 5 बजे दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में छात्र विरोध करने वाले हैं। अर्जुन सिंह को वहाँ बिना किसी सुरक्षा के उन छात्रों के बीच छोड़ देना चाहिए, एक दल तो समझ ही जाएगा दूसरे का पक्ष!! 😉

  2. मै जिन घटिया राजनितिज्ञो को जानता हुँ उनमे अर्जुन सिह जैसे लोग सर्वोच्च पायदान पर आते है. अपनी ढलती उम्र मे ये इन्सान क्यो गालीयाँ खाने का काम कर रहा है पता नही. जी चाहता है इसको जी भर कर गालीयाँ दुँ. पर असभ्य नही हुआ जाता. फिर भी “इनको” जैसे शब्द तो प्रयोग नही ही करून्गा.

  3. अपनी ढलती उम्र मे ये इन्सान क्यो गालीयाँ खाने का काम कर रहा है पता नही

    जिस चीज़ की सारी उम्र लत लगी रही वह अब बुढ़ापे में कैसे छूट सकती है!! 😉

  4. कभी ये महाशय प्रधानमन्त्री बनना चाहते थे, बात बनी नहीं. सारी उम्र ऐसा कोई काम किया नहीं कि लोग याद करे. अब जब अन्तिम समय नजदीक हैं तो, ये मसीहा बनना चाहते हैं. वैसे भी देश के भविष्य कि चींता इन जैसे लोगो को होती ही कहां हैं.
    विरोध का उचीत तरीका यह हैं कि उच्च संस्थानों के संचालक अपना त्यागपत्र दे दे और अर्जुनसिंह से कहे कि वो ही इन्हे चलाए.

  5. अर्जुन सिंह मानसिक रूप से दिवालिया हो चुका है, बेचारा चुनाव भी नही जित पा रहा है । वो तो तलुवे चाट कर पिछले दरवाजे से जैसे तैसे राज्यसभा पहुंच गया ।

    अब भैया कुछ लोग पैदायशी विघ्नसंतोषी होते है , पहले नरसिम्हाराव की ऐसी तैसी करने की कोशीश की, लेकिन पटखनी खा गये। तब ये मनमोहनसिंह को भी जनविरोधी कहते थे, उनकी उदारीकरण की नितीयो के कारण । अब उन्ही के निचे काम कर रहे है, खुजली हो गयी, बस जो मुंह मे आये बक दिया, आखीर उम्र जो हो गयी है । क्या कह रहे है, क्या कर रहे है खुद उन्हे नही मालुम होगा ।

  6. ये कार्टून भी देखें

  7. अर्जुन सिंह को एक द्वितीय श्रेणी का आरक्षण दे कर काश्‍मीर या हिमाचल कहीं भिजवा दिया जाय, वो भी आराम से हम भी आराम से।

  8. भैया, मेरी समझ में तो जिन्हें आरक्षण का लाभ होना था वो तो कब के आगे बढ चुके हैं। अगर आरक्षण देना ही है तो जाति के आधार पर क्यों, वित्तीय आधार पर दो। आई आई टी और आई आई एम की जो समूचे विश्व में साख है, भारत की एक सुन्दर तसवीर है, उसे क्यों बिगाडना चाहते हैं ? आखिर कंपनियाँ अपने चयन में तो आरक्षण नही देती। वैसे भी यहाँ आने के बाद आरक्षण से आने वालों की क्या हालत होती है, यह तो सबको पता है।

  9. अर्जुन सिन्ह ऐक हारा हुआ ईन्सान है सोनिया का पालतू है। पिछले दस सालो मे ऐक चुनाव नही जीत सका। जिन्दगी भर जमकर किया कुकाम और बुढापे मे हुआ जुकाम। चुरहट लाटरी हो या भोपाल गैस कान्ड या फिर हो सीधी मे चुनाव मे गडबड, ईनके पाप का ठीकरा कब फूटेगा भगवान

  10. भारतीय संसद के निर्माता आदरणीय भीमराम अम्बेदकर जी ने हिन्दू धर्म की अस्पृश्यता की नीति के कारण बहुत कुछ सहा था, उन्होंने आरक्षण नीति की परिकल्पना की और लागू किया जिसका मूल उद्देश्य अछूत समझी जानेवाली अनुसूचित जाति और आदिम अधिवासी, वनवासी अर्थात् अनुसूचित जनजाति के लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ तथा रियायत देकर सामान्य लोगों के बराबर लाना था। लेकिन इस नीति का मूल उद्देश्य भटक गया है।
    इस सम्बन्ध में कुछ ज्वलन्त प्रश्न हैं?

    अ.जा./अ.ज.जा. के कुछ व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं, कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं, फिर भी वे और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं, ऐसे सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित है? कब तक चलेगा ऐसा?

    जाति प्रथा केवल हिन्दू धर्म में ही हैं। फिर भी कुछ हिन्दू जो मुश्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं, अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। उन्हें रोकने के लिए क्या कानूनी कार्यवाही हो रही है?

    भारत के आदिम अधिवासी अर्थात् अ.ज.जा. वे ही हैं जो सैंकड़ों हजारों वर्षों से इस भूमि की सन्तान हैं? इतिहास बताता है कि मुगल और अंग्रेज यहाँ लुटेरों व शोषकों व आक्रामकों के रूप में आए। अतः जो अ.ज.जा. के लोग मुश्लिम या ईसाई धर्म परिवर्तन कर चुके हैं, उनके लिए कोई भी आरक्षण व्यवस्था नहीं लागू होनी चाहिए।

    कुछ लोग अ.जा./अ.ज.जा. भी हैं, मुश्लिम या ईसाई या अन्य धर्मावलम्बी भी, एक ओर आरक्षण सुविधाओँ का लाभ ले रहे हैं, दूसरी ओर अल्पसंख्यकों के लिए सुविधाओं का भी। क्या यह कानूनी और नैतिकता के अनुरूप है?

    जैसे शिक्षा के लिए दाखिले, नौकरी के लिए चयन में रियायत दी जाती है, वैसे ही खेलकूद के क्षेत्र में आरक्षण नीति लागू होनी चाहिए???? अ.जा./अ.ज.जा. के धावक के लिए सिर्फ 80 मीटर की रेंज होनी चाहिए, जबकि सामान्य वर्ग के धावक के लिए 100 मीटर हो। क्रिकेट में सामान्य बल्लेबाज के लिए जहाँ 4 रन बनें, वहीं अ.जा./अ.ज.जा. के खिलाड़ी के लिए 6 रन माना जाए???? गेंदबाज जहाँ सामान्य बल्लेबाज के लिए 100 यूनिट की गति से गेंद फेंके, वहीं अ.जा./अ.ज.जा. के बल्लेबाज के लिए उसे 80 यूनिट की गति से गेंद फेंकनी होगी????

    यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि भारत के राजनेता मंत्रियों का ईलाज सिर्फ अ.जा./अ.ज.जा. के डॉक्टर ही करें? मंत्रियों/राजनेताओं के लिए विशेष रूप से चलाए जानेवाले चार्टर्ड हवाई जहाज को केवल अ.जा./अ.ज.जा. के पायलट ही चलाएँ?

    आरक्षण नीति का वास्तविक प्रयोजन सामान्य वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए ही है, क्योंकि उन्हें तगड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है तो वे सच्चे सोने जैसे हीरो एवं हीरोईन बनेंगे न! जबकि अ.जा./अ.ज.जा. के लोग सुविधाभोगी होकर ज्यादा कमजोर, आलसी, तथा अप्रतियोगी होंगे और हजारों शताब्दियों तक पिछड़े बने रहेंगे। आरक्षण के सहारे सामान्य के बराबर आने तक सही रीति उत्थान हो पाएगा उनका? शायद सवर्णों ने ही अपने पापमोचन हेतु शनि-राहु-केतु हेतु दान-देने स्वरूप आरक्षण नीति लागू की है, जिससे उनके पाप व कुदशाओं को अपने सिर भोग वे अनन्त काल तक पिछड़े बने रहें? – अज्ञात

    यदि उन्हें सामान्य वर्ग के बराबर आना है तो “एकलव्य” जैसे कठिन स्वाध्यायी और परिश्रमी बनना चाहिए, न कि सुविधाभोगी।

    कुछ अ.जा./अ.ज.जा. के महान लोग ऐसे भी हैं, जो अपने नाम के आगे सरनेम ही नहीं लगाते और न ही किसी आरक्षण सुविधा का लाभ उठाते हैं। सामान्य वर्ग के समान ही रहकर अत्यन्त प्रतिभाशाली बने हैं। सचमुच वे पूज्य हैं। रामायण में जैसे भगवान राम ने केवट और शबरी को महत्त्व दिया था, वैसे ही वे हमारे भी सम्मान से पात्र हैं।

  11. This is very interesting site…

  12. jeetu bhai, in siyasatdano ka kya kahen, vote aur fir note ki khatir kuch bhi kar lenge, inhone desh ke tukde kar diye, logo ko aapas me ladvaya, kya kya nahi kiya, par musibat yeh hai ke ek aam hindustani ko vote ka matlab nahi malum, agar hum sab vota ka sahi matlab jaan gaye to arjun singh jaise log khud ba khud khatam ho jayenge, ye hum log hee hain jo in ko vote de kar is kabil banate hai ke ye hamara khoon choose,
    main jab bhi vote dene jaata hoon to sab se naye y sab se kam badnaam siyasatdan ko vote deta hoon, aur koi chaara bhi nahi

  13. हर शाख पे उल्लू बैटा है, अंजामें गुलिस्ताँ क्या होगा…

  14. jitendra kumar sharma on जुलाई 20th, 2006 at 10:43 am

    namaste to all indians. aaj yeh sab jo aracshan ke naam par ho raha ha yeh manavta ke purnroop se praticool ha. shuruaat main aarakshn isliye shuru kiya gaya tha kyon ki hum nimna verg ko aarakshan de kar bharatb main samroopta lana chahte the. lekin aaj is baat ka arth hum poori tarah se bhool chuke han. aaj yeh sirf vote paane ki rajniti bhar rah gaya ha. kya hoga mere is mahan bharat ka ?

  15. Ek baat hai, jo sabhee ko samajhna chahiye, aur bahut jarooree hai. yahaan par jitne logon ne comment likhi hai, woh bhee apraadhee hain, na kewal rajneta. hamaara apraadh yeh hai, ki hum kewal A.C. waale rooms me baith kar rajneeti aur siyasatdano ke baare me virodh waali baaten kehte hain.yadi hamed desh ki itnee chintaa hai, aur hum sab-kuchh smamjh sakte hain, to phir hum hee kuchh kranti kyon nahin kartre? aur utna bhee nahin, to hum kam se kam rajneeti me jaakar kuchh sudhaar to sakte hain na. kewal bolne se jagrookta bahut kam badhti hai aur kuchh faayada nahin hota hai. humko rajneeti me jaakar sam sudhaarna hai. yehee ekmatra upaay hai.

  16. हर्षवर्द्धन on जुलाई 25th, 2006 at 7:23 am

    Ek baat hai, jo sabhee ko samajhna chahiye, aur bahut jarooree hai. yahaan par jitne logon ne comment likhi hai, woh bhee apraadhee hain, na kewal rajneta. hamaara apraadh yeh hai, ki hum kewal A.C. waale rooms me baith kar rajneeti aur siyasatdano ke baare me virodh waali baaten kehte hain.yadi hamed desh ki itnee chintaa hai, aur hum sab-kuchh smamjh sakte hain, to phir hum hee kuchh kranti kyon nahin kartre? aur utna bhee nahin, to hum kam se kam rajneeti me jaakar kuchh sudhaar to sakte hain na. kewal bolne se jagrookta bahut kam badhti hai aur kuchh faayada nahin hota hai. humko rajneeti me jaakar sam sudhaarna hai. yehee ekmatra upaay hai

  17. Hello, you have great site!

  18. संविधान में आरक्षण-व्यवस्था बहुत सोच-समझ कर की गई थी। सदियों की जड़ जाति-व्यवस्था के अन्यायों को दूर करना और घोर विषम समाज को समतामूलक समाज में बदलना इसका लक्ष्य था। भारतीय नवजागरण के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फुले, महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, जानकीनाथ घोषाल आदि से लेकर महात्मा गांधी, डा. भीमराव अंबेडकर और डा. राममनोहर लोहिया तक के नेताओं के विचारों तथा संघर्ष ने इसका स्वरूप निश्चित किया था। लेकिन नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक किसी ने भी इसे समझने और ठीक प्रकार से लागू कने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत इसमें एक के बाद एक गांठे डालकर इसे उलझाया जाता रहा।
    आरक्षण संबंधी समस्याएं इसलिए अब तक बनी हुई हैं क्योंकि हमने संविधान की आरक्षण व्यवस्था को लागू करने के लिए शुरू से ही वैज्ञानिक प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया। इस व्यवस्था को सही ढंग से लागू करने के लिए जरूरी था कि जातियों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति के आंकड़ें जमा किए जाएं और उनके आधार पर जातियों का अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदि श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाए। प्रत्येक जनगणना के साथ ये आंकड़ें जमा किए जाएं और हर दस साल बाद आंकड़ों के विश्लेषण से पता लगाया जाए कि किन जातियों को संविधान के अनुच्छेत 16(4) के अनुसार नौकरियों आदि में ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल गया है और जिन्हें मिल गया हो उन्हें आरक्षण की परिधि से बाहर किया जाए। इस प्रकार उत्तरोत्तर निचली जातियों को आरक्षण की सुविधा मिलती जाती। कालांतर में सभी जातियों को ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल जाता तथा आरक्षण व्यवस्था स्वत: समाप्त हो जाती।
    लेकिन हमारी सरकारें नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक जातियों के वैज्ञानिक आंकड़े जमा करने से घबराती रहीं, इसलिए कि ये आंकड़े सामने आए तो जातिगत शोषण की नंगी तस्वीर सामने आ जाएगी। इससे पता चलेगा कि जिन जातियों का कुल जनसंख्या में अनुपात 15-16 प्रतिशत हैं, वे 90-95 प्रतिशत पदों पर कब्जा जमाए बैठी हैं। अंतिम बार जातियों के आंकड़े 1931 की जनगणना में इकट्ठे किए गए थे। उसके बाद ये आंकड़े जान-बूझ कर जमा नहीं किए गए और बिना वैज्ञानिक आंकड़ों के जातियों की शिनाख्त करने, उनका श्रेणीकरण करने तथा आरक्षण कोटा निर्धारित करने के सारे काम अनाप-शनाप ढंग से हुए।
    हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि भारतीय समाज का गठन वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत हुआ है और इस तथ्य को हम नजरों से आ॓झल नहीं कर सकते कि जो जातियां द्विज वर्णों में यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में नहीं आतीं वे या तो पिछड़े वर्गों में आती हैं या फिर अनुसूचित जातियों और जनजातियों में। जनगणना में इस आधार पर वर्गीकरण हो जाने के बाद ही ‘क्रीमी लेयर’ की कसौटी (संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ की कसौटी) लागू हो तथा आरक्षण की परिधि से निकाले गए नागरिक वर्गों को अगड़ों में शामिल माना जाए। जनगणना के आंकड़ों से पहले क्रीमी लेयर लागू करना अवैज्ञानिक होगा और इसके लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण या किसी और प्रकार के सर्वेक्षण के आंकड़े भी अधूरे ही होंगे। जनगणना कार्यालय के अभिलेखों को छोड़ कर शेष सभी सरकारी और गैर सरकारी दस्तावेजों में जातिबोधक नामों का उल्लेख प्रतिबंधित कर दिया जाए तथा प्रमाणपत्रों आदि में चार या पांच श्रेणियों या उनकी क्रम संख्या का ही उल्लेख किया जाए।
    चूंकि जाति सभी राजनीतिक पार्टियों का निहित स्वार्थ बन गई हैं, कोई भी सरकार यह काम करने को तैयार नहीं होगी। अत: उच्चतम न्यायालय को ही इसका स्पष्ट निर्देश देना पड़ेगा। जैसे अमेरिका में रंग-भेद को समाप्त करने का काम वहां के उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश अर्ल वारेन के प्रसिद्ध निर्णय के द्वारा करना पड़ा। वैसे ही हमारे उच्चतम न्यायालय को करना पड़ेगा।
    1857 की क्रांति में हिस्सा लेने वाली सभी जातियों को अभी तक न्याय नहीं मिला है। प्रथम स्वाधीनता आंदोलन की 150 वीं जयंती पर भी हमारा ध्यान इस आ॓र नहीं गया है। समस्याओं का अंत तभी होगा जब संविधान की आरक्षण व्यवस्था को पीछे कहे गए अनुसार वैज्ञानिक तरीके से लागू किया जाएगा और उच्चतम न्यायालय को आरक्षणों की 50 प्रतिशत सीमा को भी हटाना पड़ेगा और यह सीमा अद्विज जातियों की जनसंख्या को देखते हुए ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित करनी पडे़गी।

  19. Kahte hai aaj hum aazad ho gaye hai…Lekin aazad Bharat men hum sukun ki sans bhi nahi le sakte. Kyoki sukun ki sanso se to siyasi log le rahe hai. Pahle goron ne desh ko bata aur ab yah nek kam aaj ki gandi rajniti kar rahi hai. Ek esi rajniti jo votebank ki khatir logon ko aaps men ladwa rahi hai, bat rahi is desh ko jati ke nam par. Ye loktantra hai jahan par sabhi ko saman adhikar prapt hai..lekin jab reservation ki aati hai to ye adhikar kahan chale jate hai..

  20. 27% obc aarqshan dene ki baat ki gai. or aaj bhi colleges me site khali padi hai unke naam ki, koi puche arjun singh se janral kote ke bacche/bacchiyan agar us samay liya jate to unka fayda hota aaj un baccho ko us colleges me addmi. na milne ke karan unki padai chut gayi. hai koi javab.

  21. सवर्ण समाज में ही कुछ विभिसन जैसे गद्दार हैं जिनके कंधे पर सवार होकर सवर्णों का ही बुरा किया जा रहा है अब भारतीय प्रजा शक्ति पार्टी आरक्षण विरोधी मुहीम चला रही है आप भी इस मुहीम म सामिल होकर अपना फ़र्ज़ अदा करें , सदस्य बनने के लिए संपर्क करें- ९४५२४५२८४५, 9415507848

  22. अश्वनी त्रिपाठी on फरवरी 21st, 2011 at 4:50 pm

    भैया जी आपको बहुत धय्न्य्वाद जो आप ने आरक्षण के विरोध में लिखा कृपया ऐसे लिखते रहो, और कोई बड़ा आन्दोलन आयोजित करने की तयारी करो, हम सभी आपके साथ है मरने के लिए, हम एक खुली प्रतियोगिता चाहते है जिससे हमारे देश को अच्छी प्रतिभाएं मिल सके. और ऐसे भी यह तो पूरा मानवाधिकार का हनन है, जय भारत ! संपर्क सूत्र ९९९०९३९४८२

  23. system are corrupted

  24. जो लोग आरक्षण को ख़ारिज करते हैं, वो तो हमेशा से सामाजिक न्याय के सवाल को भी ख़ारिज करते रहे हैं. ये वो लोग हैं जो कि हिंदुस्तान के मध्यम वर्ग को अन्य वर्गों के लिए कुछ भी छोड़ना पड़े, इस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं.

    ये वे लोग हैं जिन्होंने न तो हमारा समाज देखा है और न ही अवसरों की ग़ैर-बराबरी को समझने की कोशिश की है. ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है.

    मिसाल के तौर पर अमरीकी समाज ने जबतक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तबतक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं.

    हाँ, अगर आप भिन्नताओं की ओर से आँख मूँदना समाज को तोड़ने का एक तयशुदा फ़ार्मूला है.

    अगर पिछले 50 साल के अनुभव पर एक मोटी बात कहनी हो तो मैं एक बात ज़रूर कहूँगा कि आरक्षण की व्यवस्था एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा है, समाज के हाशियाग्रस्त लोगों को समाज में एक स्थिति पर लाने का.

  25. 60वर्षो से चली आ रही आरक्षण को समाप्त करने की बात सब कर रहे है जातिवाद की भवन कब समाप्त होगी इस पर कोई चर्चा नहीं क्यों सामान्य वर्ग के लोगो से निवेदन है की खुद को एक sc st के स्थान पर रख जार देखो क्या महशुश होता है किशी भी जनरल को बोल कर देकगो की मई चमार हु सामने वाले का रिएक्शन कहेंगे हओ जाता है ऐश क्यों