किस्से पतंगबाजी के

बहुत दिनो से अतुल और शुकुल डन्डा किए थे, पुराने वादे पूरे करो, पुराने लेखों मे जहाँ जहाँ वादा किए हो वहाँ का लिख-लिखाकर अपने वादे पूरे करो। पिछले बार हम जब छत की बात कर रहे थे, तो पतंगबाजी के किस्से छोड़ दिए गए थे, तो जनाब पेश है किस्से पतंगबाजी के। पतंग किसने नही उड़ायी है? हम सभी ने कभी ना कभी पतंग तो जरुर उड़ायी होगी, बचपन मे जवानी मे, रवि भाई और शुकुलवा तो बुढापे मे भी उड़ाते है।

patangbaaziयूं तो पतंगबाजी का सीजन पूरे साल चलता है लेकिन जनाब! गर्मियों की सुबह, सावन के दिन-भर और सर्दियों की दोपहर मे पतंगबाजी करने का जो लुत्फ़ है वो और कभी नही। फ़ुल्टू पतंगबाजी होती, पतंगबाजी मे हमारा साथ देते थे, धीरू भाई। धीरू भाई का परिचय वैसे तो बहुत पुराना है लेकिन इतना समझ लीजिए, ये हमारा लंगोटिया…. नही…नही यार, लंगोट/निकर वगैरह तो बाद मे पहननी सीखी, ये दोस्ती तो उससे भी पुरानी है। हम लोग लगभग साथ साथ ही पैदा हुए, एक ही बिल्डिंग मे रहते थे, एक ही स्कूल मे पढते थे, शौंक भी लगभग एक जैसे ही थे। तो भई, बात हो रही थी, पतंगबाजी की, पतंगबाजी का शौंक ऐसा था, कि हम लोग अक्सर छत पर ही टंगे रहते थे, तब तक नही उतरते थे, जब तक छत पर कोई गरिआने नही आता था। पतंगबाजी के शौंक के भी कई स्तर होते है। पहला स्तर की पतंगबाजी होती है देखने के शौंक वाली, आपको पतंगबाजी देखने का शौंक होता है। आसमान मे लाल, हरी, नीली, रंग बिरंगी पतंगे उड़ती है आप उन्हे देखकर मन ही मन खुश होते है। आपका भी मन करता है कि पतंग की तरह होते, नीले गगन मे उड़ते रहते। अक्सर ये शौंक तभी होता है जब आप या तो पतंग उड़ाना नही जानते, या उड़ा नही सकते। बचपन की शुरुवात मे जेब-खर्च लिमिटेड मिलता था, इसलिए शुरुवाती के दिनो मे, हम सिर्फ़ पतंगो को उड़ता देखकर ही काम चला लेते थे।

दूसरा स्तर होता है, लंगड़बाजी का। लंगड़ नही जानते? अरे? इस शौंक मे आपके पास पतंगे तो नही होती, अलबता, सद्दी, मांझा और एक आध पत्थर पल्ले जरुर होता है। माँझा और सद्दी ना हो तो उसका भी एक जुगाड़ है: माँझा लूटना, इसके लिए उड़ती/कटती पतंगो पर नजर रखिए,बस डोर जैसे ही आपकी मुंडेर से गुजरे, लपक लो, तब तक मत छोड़ो, जब तक अगला झल्ला कर तोड़ ना ले। अब आपके पास सद्दी मांझा तो है ना, अब रही पत्थर की बात, वो आप खुद जुगाड़ करो। बस पत्थर को सद्दी से बांधो, और आपकी छत की ऊंचाई से उड़ती हुई पतंगो मे लंगड़ डालो, यानि पत्थर को दूसरी पतंग की डोर तक पहुँचाना ही है। अगर पहुँच गया तो ठीक, नही तो दोबारा ट्राई करो। आपकी छत जितनी ऊंची लंगड़ उतना ही अच्छा पड़ता है। किसी भी पतंगबाज को लंगड़बाजी तभी करनी पड़ती है जब या तो उसको सीमित जेबखर्च मिलता है, या पतंग कट जाती है।

तीसरे स्तर का किसी को चने के झाड़ पर चढाकर पतंगबाजी कराना ये थोड़ी ट्रिकी टाइप की होती है, सबके बस की नही होती। धीरू और हम लोग अक्सर इसका सहारा लेते थे, मोहल्ले के एक अमीर लड़के( मिश्रीलाल नाम रख लेते है) को पकड़कर उसे पहले पतंगबाजी का शौंक कराया जाता, फिर उसे चने के झाड़ पर चढाया जाता कि यार! तुम कितनी शानदार पतंग उड़ाते हो, जब पतंग उड़ाते मोहल्ले की लड़कियाँ छतो पर चढकर तुमको एकटक देखती है। बस फिर क्या मिश्रीलाल तुरत फुरत पतंग और माँझे का इन्तजाम करता, थोड़ी देर तक हम उससे पतंग उड़वाने का नाटक करते, थोड़ी देर बाद फिर उसे अगल बदल, दाँए बाए की छतों पर लड़किया ताक झांक के लिए लगा देते, तब तक हम पतंग उड़ाकर बहुत मौज लेते, मिश्रीलाल तो इसी मे खुश कि वो सबसे अच्छी पतंग उड़ाता है।जब तक इस मिश्रीलाल को हमारा खेल समझ मे आता, तब तक हमे दूसरे कई मिश्रीलाल मिल जाते।

patangएक और स्तर होता है, जब पतंगबाजी जुनून बन जाती है। इस जनून मे आदमी तभी पतंगबाजी छोड़ता है जब वो एक आध बार छत से गिरकर चोटिल नही हो जाता। पतंगबाजी का हमारा शौंक भी बहुत पुराना रहा है। कई कई बार गिरे, दो तीन बार तो धीरू को भी धक्का दिए, लेकिन मजाल है कि पतंग बाजी छोड़ दें। कईयों की पतंगो मे लंगड़ भी लगाए, पिटे भी कई बार, झगड़ा भी बहुत हुआ, लेकिन अक्सर धीरू हमारे बहुत काम आता, लंगड़ मैं लगाता, नाम धीरू का लगा देता, बेचारा वो दोस्ती की खातिर पिट जाता। पतंगबाजी मे धैर्य बहुत जरुरी है, जो धीरू के पास नही होता था, जब भी उसकी पतंग कटती वो अक्सर रोने लगता था। जब मेरी पतंग कटती थी, तब भी वो रोने लगता था, क्यों? दोस्ती की खातिर, अरे नही मियाँ, अगर वो हमारी पतंग कटने पर हमे चिढाए, और हम उसे पीटे बिना छोड़ देंगे? पिटने के बाद वो रोएगा नही तो हँसेगा क्या?

पतंग खरीदने के लिए हम लोग चमन गंज जाते थे, अब्दुल गनी की दुकान से पतंग लाने के लिए, ज्यादा पैसे तो अपने पल्ले रहते नही थे, इसलिए अक्सर कोई ‘मुर्गा‘ फांसकर हम ले जाते, ढेर सारी पतंगे खरीदते, घर तक पहुँचते पहुँचते हिसाब मे गड़बड़ी के चलते, झगड़ा हो जाता, धीरू फिर मान्डवली कराता, जिसमे ‘मुर्गा’ बेचारा, ज्यादा पैसा लगाकर भी कम पतंगे पाता। कई बार झगड़ा हुआ, ना जाने कित्ती बार पिटे, लेकिन हम भी कहाँ सुधरने वाले थे, हर बार अलग अलग ‘मुर्गा’ पकड़कर ले जाते। इसी तरह माँझा के लिए हम दूर बकरमन्डी जाते, माँझा सबसे अच्छा मिलता था, इश्तियाक मियाँ के पास। हम लोग अक्सर सुबह सुबह पतंगबाजी के सामान जुगाड़ करने के लिये निकलते, घन्टो इश्तियाक मियां को माँझा बनाते हुए देखते, उनसे माँझेबाजी के गुर सीखते और मोहल्ले मे आकर लम्बी लम्बी हाँकते।

एक बार हम लोगों को माँझा बनाने का शौँक चर्राया। इसके लिए सामान का जुगाड़ किया गया, छत को माँझा बनाने के स्थान मे परिवर्तित किया गया, कुछ फ्यूज बल्ब वगैरहा इकट्टे किए गए, पांडे जी की दुकान से रंग वगैरहा का जुगाड़ किया गया, लेई वगैरहा हमने घर पर ही बना ली थी। दस्ताने लाने की जिम्मेदारी धीरू की थी, शीशा कूटने का काम हमने किया। क्या झकास मांझा बना, किसी को भी हवा नही लगी। सब कुछ सही था, ये तो मार पड़े धीरू को, अपने पिताजी के दस्ताने ले आया, हमने अपना माँझा बनाकर दस्ताने वैसे ही वापस रख दिए, धीरू के पिताजी ने जब दस्ताने पहने को उनको शीशा चुभ गया, महीन काँच वो भी बल्ब वाला, जाहिर है, धीरू को तलब किया गया, धीरू कच्चा निकला, दो चार झापड़ मे ही उसने गुनाह कबूल कर लिया और साथ मे मेरा नाम भी ले लिय। जाहिर है, जब माँझा साथ बनाया तो पिटे भी साथ साथ। उस जमाने मे लोग अपने बेटे और पड़ोसी के बेटे मे फरक नही रखते थे, दोनो को झापड़ मारा जा सकता था। आज की तरह थोड़े ही। अरे हाँ हम लोग पतंग उड़ाते समय, कोर्स की एक किताब लेकर जरुर बैठते थे, इस्तेमाल? अभी बताते है।

पतंग उड़ाते समय हमे सबसे ज्यादा गुस्सा आता था, टीवी के एन्टीना पर। उस जमाने मे सभी को ऊँचा से ऊँचा एन्टीना लगाने का बुखार था, लोगो का ये जुनून हमारी पतंगबाजी मे बाधा बनता था। अक्सर हम लोग पड़ोस के शर्माजी के एन्टीना को गिरा देते थी। शर्माइन को टीवी देखना का बहुत शौंक था, इसलिए वो कान छत पर ही लगाए रखती। जब भी एन्टीना गिरता, धम्म की जोरदार आवाज होती। शर्माइन बोलती थी : लगता है इ लौंडन लोग ने फिर से अन्टीना गिरा दिआ। जब तक शर्मा जी गुस्से मे सीढिया चढते हुए, हाँफते हुए छत पर आते, तब तक हम पतंगबाजी को एक किनारे करके, शर्माजी को इग्नोर मारते हुए, जोर जोर से अपनी कोर्स बुक का कोई पन्ना पढने लगते, जब शर्मा जी चार पाँच आवाजे मारते, तब जाकर हम बोलते, कि टेस्ट चल रहे है, हमको नही पता कि एन्टीना कैसे गिरा। हो सकता है टिल्लू ने गिराया हो, शायद इसीलिए जोर जोर से नीचे भागा है। (आप टिल्लू को नही जानते? यहाँ पढिए ना ) उसके बाद टिल्लू जाने और शर्मा जी, हमारा क्या? हमारे तो टेस्ट चल रहे है ना।

अब ये लेख बहुत लम्बा होता जा रहा है, इसे समेटा जाए, पतंगबाजी के किस्से अभी आगे भी जारी रहेगे, लेकिन कोई वादा नही कर रहे, जब मौका मिलेगा, लिखेंगे। पतंगबाजी के आपके भी तो शौंक होंगे ना, तो लिख डालिए, आप भी। हमे इन्तज़ार रहेगा।

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12 Responses to “किस्से पतंगबाजी के”

  1. बेहतरीन उड़ी भाई पतंग तो. मजेदार किस्सा रहा. 🙂

  2. जितु भाई हम तो कानपुर के लल्लन कि दुकान कि पतंग ऊढाते थे। कभी ऊढाई है लल्लन की पतंग जरा ये भी कभी बताना

    आपका कनपुरिया भाई

    थालैन्ड से दिपु

  3. Vaah bhai, panag kya udayi apne ham apne unnao pahuncha gaye. Purane din, ghar valon ki daant langad aur chudaeeya sab yaad aane lage…… majedaar hai apka varnaan aur panatbaji ke to kay kahne….

  4. वाह वाह मजा आ गया
    क्या पतंग उड़ाई, कोर्स की किताब का एक और महत्व मालूम हुआ 🙂

  5. अच्छा लगा आपका पतंग उड़ाना और
    साथ में झकास की ठीठोली, ग्रामीण
    पृष्टिय शब्दों का प्रयोग अत्यंत चतुराई से
    किया है…बस शुरु किया और उभते मनःचित्रों
    के सहारे रमता गया कुछ यादों को उंगलियों
    में दबाए…और धन्यवाद देता रहा आपको…।

  6. बहुत बढ़िया ! पतंगबाज़ी के तमाम टेक्निकल टर्म्स याद आ गये. जैसे – ‘छुड़ैया देना’ (स्टेज 2), लपेटना, लटाई या चकरी, कन्नी बाँधना.

    अगली कड़ी में पेंच लड़ाने की बारीकियों पर चर्चा करिये.

    🙂

  7. बहुत खूब! सारी लहकटई बड़ी कलाकारी से बयान की! अब आगे की कहानी का इंतजार है। बकरंमंडी में मंझा अब भी बनता है, चमनगंज में पतंगे अब भी बनती हैं लेकिन अब तुम्हारे जैसे छुट्टे दीवाने कम हो गये होंगे। ये बात जरूर है कि पड़ोसी अब दूसरे के बच्चों को पीटने में संकोच करते हैं। बहुत दिन बाद जुगाड़ी लिंक के साये से दूर आकर यह पोस्ट लिखी तो मजा आ गया। पतंगों की फोटू भी झकास है। आगे के लेख का इंतजार है!

  8. bhai bahut sandar
    one question for my side how can write hindi?

  9. Wow dear maaja aa gaya yeh post padd ke.. Aapka blog waakeye hi bahut accha hai..Aur khass kar ke patangbaazi waali post…i m also a patangbaaz from amritsar…

  10. अच्छा किया बता दिया । हम भी पढ़ आए । मोहल्ला ही तो है जिसे लेकर हम परदेसी हो गए हैं । और इसी के लिए हम सबको एक बार स्वदेसी बनना है । रवीश कुमार कस्बावाला ।

  11. क्या पतंग उडाई है आपने …

    हमने भी बहुत कोशिश कर कर के सीख तो ली पर तब तक बचपन के वे दिन निकल गए…अब कभी समय मिलता है तो घर पे उडा लेता हूँ…

    हाँ तब दोस्तों की कोई कमी नहीं थी आज तो कोई परिचित मिलता ही नहीं अपने कसबे में…

  12. Lagata hai paidais bhi kanpur ki hai