झटकों का सीजन

शायद साउथ-एशिया मे सरकारों/शासकों को झटके देने का सीजन चल रहा है। इधर वामपंथी मनमोहन सरकार को झटके देने की कोशिश कर रहे है, उधर सीमा पार बेचारे मुशर्रफ़ की मुसीबते है कि कम होने का नाम नही ले रही। चौधरी साहब के बाद लाल मस्जिद का मसला कुछ शान्त हुआ ही था कि अमरीका ने मांग रख दी, बेनजीर से मांडवली करो। अब गुपचुप बेनज़ीर से मुलाकात करके सौदा पटाया, लेकिन उधर मियां नवाज शरीफ़ भी बमक गए। बोले हम भी लौटेंगे, काहे? अरे भाई बेनजीर को सत्ता सुख अकेले थोड़े ही भोगने देंगे। चुनावों मे भी कड़ी टक्कर देंगे। मियां साहब से निबटने के लिए मुशर्रफ़ के बन्दो के पुराने एग्रीमेन्ट का हवाला दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि मियां साहब वतन वापसी कर सकते है। मुशर्रफ़ को अब अपनी साख बचाना मुश्किल दिखता है। झटको पर झटके लग रहे है।

झटके अकेले मुशर्रफ़ को लगे हो ऐसा नही है, नेपाल की राजशाही को हर रोज कुछ ना कुछ नया झटका सहना पड़ रहा है, लेटेस्ट है कि उनके सात महलों का राष्ट्रीयकरण होगा, माने कि राजा महेन्द्र के हाथ से यह महल भी जाते रहे। वैसे ही लोकतन्त्र के नाम पर राजशाही के खिलाफ़ नए नए फरमान आते जा रहे है।

अब फरमान अकेले नेपाल मे जारी हो रहे है ऐसा नही, भारत मे भी सरकार के सहयोगी, वामपंथी पार्टियों ने सरकार को फरमान जारी किया है कि आणुविक डील पर रोक लगाओ, नही तो हम सरकार के नीचे से लाल कालीन खींच लेंगे। तो इसका मतलब यही हुआ ना, सत्तासीन लोगों के लिए तो झटके का सीजन हुआ ना। अभी तक के उनके रुख से तो यही दिखता है ये कोरी धमकी है, वे जानते है कि इस बार अगर सरकार से समर्थन वापस लिया तो बैठे बिठाए, लादे गए चुनाव में, कांग्रेस को पूर्ण बहुमत दिलवा देंगे। उसके बाद वामपंथियों को कैसे ट्रीट किया जाएगा वे अच्छी तरह से जानते है। चुनाव का सामना करने की कुव्वत ना बीजेपी मे है और ना वामपंथियो मे, अलबत्ता कांग्रेस अभी कुछ अच्छी स्थिति मे दिख रही है। बीजेपी के पास तो कोई मुद्दा ही नही है, बेचारे करे भी तो क्या करें। राज्यों मे इकाइया आपस मे ही गुत्थमगुत्था है, पहले आपस मे निबट ले, विरोधियों से तो बाद मे लड़ेंगे। कुछ मिलाकर स्थिति विचित्र है, परेशान है तो कमल भाई जैसे निवेशक जो रोज शेयर मार्केट के झटकों को देखकर परेशान है। यदि आप को भी झटके लगे तो टेन्शन मत लीजिएगा, यकीन मानिए झटकों का सीजन चल रहा है।

आपका क्या कहना है इस बारे में।

चलते चलते : एक नेताजी से एक पत्रकार ने पूछा कि आपके विरोधी ने फिर कुछ गंध की है, आपका नाम ले ले कर पंगे लिए है, नेताजी की बहुत शान्त प्रतिक्रिया थी ” उ का है कि भैंस अगर टांग उठाएगी तो गोबर ही तो देगी ना, इसलिए तनिक भी चिन्ता ना करो।”

8 Responses to “झटकों का सीजन”

  1. ठीक है झटकों का सीजन है, पर सीजन कितना लम्बा चलेगा? इसपर तो कुछ आप्त वचन कहे होते, जिससे प्रॉपर प्लानिग हो सकती.

  2. जीतू भाई..हम सरकार के नीचे से लाल क़ालीन खींच लेंगे…लाजवाब फ़्रेज़ इस्तेमाल किया है आपने.बड़ी प्रासंगिक है ये प्रविष्टि है…मध्य एशिया के सूरते हाल को बयाँ करती है और चिंता भी जगाती है मुझ जैसे एक आम इन्सान के मन में.

  3. क्या सावन के महीने से इसका कुछ सम्बन्ध है!

  4. टांग उठाने पर आज चिंता न करोगे तो क्ल बच कर चलना भी मुश्किल ही समझो. गोबर से लदे नजर आओगे, अच्छा लगेगा क्या??

  5. नेताजी की तरह आप भी चिंता ना करो. 🙂 कुछ होना-धोना है नहीं, सावन में आग लगने वाली नहीं. 🙂 वही ढ़ाक के तीन पात. यह सिजन भी जल्द बीत जाएगी.

    वैसे श्रीलंका से क्या खबर है?

  6. नेताजी वाली बात रख के दिए हो गुरु!!

  7. अमेरिका के फेडरल रिजर्व के वर्तमान चेयरमैन बेन बर्नान्के जब युवा अर्थशास्त्री थे तो उन्होंने एक थ्योरी दी थी जिसमें अच्छी खासी और शांत चल रही अर्थव्यवस्था को शाक देकर देखा जाना चाहिए की अर्थव्यवस्था अचानक आए किसी धक्के को झेल सकती है या नहीं.पूरे विश्व में पहले भी और हाल में हुई आर्थिक गतिविधियों को हम इसका एक उदाहरण मान सकते हैं.अब चूंकि एशिया के हमारी तरफ़ वाले हिस्से में अर्थशास्त्र नहीं बल्कि राजनीति हावी रहती है तो हम इस थ्योरी का प्रयोग राजनीति में करते हैं.

    जैसे पहले भी हुआ है, ऐसे धक्के के बाद अर्थव्यवस्था अचानक पटरी पर आ जाती है, वैसा ही हमारे क्षेत्र की राजनीति में भी होगा….थोड़े दिनों के बाद सब कुछ ठीक हो जायेगा.हाँ एक बात ज़रूर है. अर्थव्यवस्था को धक्का लगने पर राजनीति की बातें होती हैं और राजनीति को धक्का लगने पर अर्थव्यवस्था की बातें होती हैं.

    वैसे दोनों तरह के धक्के बड़े जायकेदार होते हैं.

  8. अरे यूं है बात कि साल भर कुर्सियों पर पड़े-२ सड़ते रहते हैं, ये एक सीज़न होता है जब ये उमंग में होते हैं, इसलिए गिल्ली-डंडा खेल थोड़ी कसरत करते हैं!! 😉