बचपन और कामिक्स

वो बचपन ही क्या जिसमे कामिक्स ना हो। आज फिर यादों ने अंगड़ाई ली है। चिट्ठाकार पर इंद्रजाल कामिक्स के बारे मे वार्तालाप से हमे अपना बचपन याद आ गया। मेरे ख्याल से किसी भी बचपन की कल्पना चित्रकथा(कामिक्स) के बिना नही की जा सकती। हम सभी ने बचपन मे कभी ना कभी कामिक्स जरुर पढे होंगे। मै भी बचपन मे कामिक्स का कीड़ा रहा हूँ। कामिक्स पढने के मामले मे हम हिन्दी चित्रकथाओं मे ज्यादा दिलचस्पी रखते थे। हमारे प्रिय चरित्रो मे वेताल(फैंटम), बहादुर, मेंड्रेक, फ़्लैश गार्डन, चाचा चौधरी थे। इसके साथ ही कई ऐसे चरित्र भी थे, जो हमे प्यारे थे, लेकिन आज शायद दिमाग मे याद नही आ रहे। इसके अलावा हमे अमर चित्र कथा पढने का बहुत शौंक था। महाभारत के पात्रों पर लिखी कथाएं बहुत अच्छी लगती थी।

vetaal

हमने पहली कामिक्स कौन सी पढी थी? मेरे ख्याल से दीवाना नाम की एक पत्रिका आती थी, जिसमे ढेर सारे कामिक्स हुआ करते थे, अक्सर फैंटम और मेंड्रेक वाली। इसके अलावा दीवाना का शेखचिल्ली चरित्र भी हुआ करता था, जो अक्सर लोगों से पंगे लेकर मजे लिया करता था। दीवाना के अलावा मधुमुस्कान नाम की एक पत्रिका भी आती थी, जिसमे मोटू पतलू, डा.झटका, पोपट चौपट, सुस्तराम चुस्तराम नाम के चरित्र बहुत मशहूर थे। लोटपोट भी बहुत मशहूर पत्रिका थी, जिसमे मायापुरी नाम की काल्पनिक नगर मे ये सारे कामिक्स चरित्र रहते थे। मेरे ख्याल से लोटपोट तो आज भी छप रही है। कई कई बार तो कामिक्स पढने के चक्कर मे घर से भी डांट पड़ती थी। अब क्या है कि हमारा जेबखर्च बहुत सीमित हुआ करता था, इसलिए कामिक्स खरीदने के लिए इत्ते पैसे तो होते नही थे, इसलिए हम लोग कामिक्स विनिमय का सिद्दांत अपनाते थे। वो कैसे? हम (मै और धीरू) अक्सर कोई मुर्गा फांसते थे, जिसको कामिक्स के बारे मे ज्ञान वर्धन किया जाता था, ज्ञान वर्धन क्या जी, पूरा पूरा ब्रेनवाश किया जाता था। उसके बाद उसको कामिक्स खरीदने के लिए उकसाया जाता था। एकदम चाय कम्पनियों वाले सिद्दांत को अपनाया जाता था, पहले पहले फ्री मे (अपने कलैक्शन से) कामिक्स पढाए जाते थे, फिर धीरे धीरे कामिक्स की सप्लाई बन्द कर दी जाती और उसको नए कामिक्स खरीदने के लिए प्रोत्साहन का काम शुरु हो जाता। इस तरह से वो बन्दा कामिक्स खरीदता तो कम से कम महीने भर का तो जुगाड़ हो ही जाता। एक महीने तक मुर्गा बनने के बाद वो बन्दा भी हमारे मुर्गा फ़ंसाओ क्लब का सदस्य बन जाता और इस तरह से चैन सिस्टम चल निकलता। मेरे विचार से एमवे वगैरहा वालो ने अपना मॉडल हमारे यहाँ से ही चुराया है।
diwana madhumuskan lotpot

इसके अलावा हम पी.रोड पर राजाराम की बुकस्टाल और राधा मोहन मार्केट मे मनोरंजन संग्रहालय के ग्राहक बने। राजाराम बीस पैसे प्रति कामिक्स की पढाई लेता था, थोड़े ही दिनो मे हमने उससे डील कर ली, कि वहाँ बैठ कर पढने के दस पैसे देंगे और घर ले जाने के बीस पैसे। बस फिर क्या था। हम हर रोज कोई ना कोई मुर्गा फांसते और उसे राजाराम की दुकान ले जाते, उसके(मुर्गे के) पल्ले से दस पैसे जाते और हम दोनो कामिक्स पढते। लेकिन एक दिन फड्डा हो गया। पहले मै, पहले मै के चक्कर मे नए कामिक्स की छीना छपटी हो गयी और कामिक्स फट गया। फिर क्या हुआ? होता क्या, राजाराम चिल्लाया, डांटा डपटा और वहाँ पर कामिक्स पढने बंद। लेकिन वो जीतू ही क्या जो हार मान जाएं, हमने राजाराम के प्रतिद्वंदी लल्लन को पटाया और उधर कामिक्स पढाई शुरु…..

इसके अलावा कभी अगर किसी को स्टेशन पर लेने/छोड़ने जाना पड़ जाता तो ए एच व्हीलर की दुकान वाले के यहाँ हम खड़े खड़े कामिक्स पढते थे, पढने की स्पीड इत्ती तेज होती कि दुकानदान भांप नही पाता था। फिर भी अगर वो इस तरफ़ से हटाता था तो हम उस तरफ़ चले जाते थे, उधर से भगाता था तो? अबे इत्ते सारे प्लेटफार्म थे, हर प्लेटफार्म पर एक ए एच व्हीलर की दुकान या गुमटी तो होती ही थी ना। खैर….ये तो कभी कभी का जुगाड़ था, रेग्यूजर जुगाड़ के लिए आगे पढिए।

मनोरंजन संग्रहालय वाले कुबड़े दद्दा बहुत XXX टाइप (आप XXX को किसी भी यूपी इश्टाइल की गाली से तब्दील कर लें) के आइटम थे, वो बच्चों को शुरु शुरु मे तो कामिक्स पढाते,(अक्सर फ्री), लेकिन धीरे धीरे अपने चंगुल मे फंसाकर मस्तराम डाइजेस्ट टिकाते। लड़के मस्तराम डाइजेस्ट की आदत लगने के बाद उसके चंगुल से कभी ना छूट पाते। लेकिन ठहरे पुराना चावल, हम डटे रहे, हम तो कई बार दद्दा को भी टोपी पहना दिए, दद्दा कामिक्स के साथ मे मस्तराम डाइजेस्ट फ्री देते थे, वो हम धीरू को टिका देते थे, कामिक्स खुद पढ लेते थे। धीरे धीरे, दद्दा ने कामिक्स फ्री देने शुरु कर दिए। दद्दा सोचते थे कि लड़का सैट हो गया है, एक दिन दद्दा ने मस्तराम डाइजेस्ट के पैसे मांगने शुरु कर दिया तो हमने उनको नमस्ते करके किनारा कर दिया। इस तरह से ये किस्सा भी खत्म हुआ। इस बीच राजन इकबाल और राम रहीम के जासूसी उपन्यास पढने का शौंक चढा, जो वहाँ से होते हुए, ओमप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र पाठक, मेजर बलवन्त, कर्नल रंजीत से होते हुए वेदप्रकाश शर्मा पर जाकर खत्म हुआ। इसकी कहानी फिर कभी।

ऐसा नही था कि हम सिर्फ़ हिन्दी कामिक्स के ही दीवाने थे, हम अंग्रेजी कामिक्स भी पढते थे, लेकिन सिर्फ़ टिनटिन और आर्चीज, उसके अलावा अपने पल्ले नही पड़ते थे। इंद्रजाल कामिक्स हम हिन्दी मे ही पढते थे। भई जब हिन्दी मे माल मौजूद है काहे अंग्रेजी मे सर खपाएं, है कि नही? आपके कामिक्स के सम्बंध मे क्या क्या अनुभव है लिखिएगा।जाते जाते पेश है पोपट चौपट के कामिक्स की एक झलक:
madhumuskan

कामिक्स के बारे मे ज्यादा जानकारी

कामिक वर्ल्ड
इंद्रजाल कामिक्स विकीपीडिया पर

चित्र सौजन्य : कामिक्स वाला बन्दा (Comic guy)

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18 Responses to “बचपन और कामिक्स”

  1. जे गलत बात है, हमारी स्टोरी को अपनी बता के डाल दिए हो इहां 😉

    वैसे यह हकीकत है कि ऐसा ही कुछ हमारा भी हाल रहा है, मोहल्ले और आसपास के मोहल्ले में जितने भी बुक स्टॉल हुआ करते थे सब हमें पहचानने लगे थे और हमने भी यही ट्रिक आजमाई थी कि बैठकर पढ़ने के कम पैसे देंगे और घर ले जाने के पूरे!!
    एक बार मोहल्ले में एक बाहर से एक बंदा आया, सरकारी नौकरी में था, साईड बिजनेस के नाम पर बुक स्टॉल चलाता था, उससे दोस्ती गांठ ली, उसकी गैरहाजरी में उसकी दुकान संभालते बदले में कॉमिक्स ही कॉमिक्स।

    एक से एक जुगाड़ सूझते थे तब , घर मे डांट-मार सब खूब खाई इन कामिक्स के नाम से!!
    तब से लगी लत किताबों की आज भी है, और किताबों के कारण डांट खाना तो आज भी जारी है।

    कोई लौटा दे…… वो कॉमिक्स वाले दिन………………………

  2. जीतू भाई कहां पहुंचा दिया आपने बचपन के गलियारों में । मुझे याद है हम भोपाल में थे अपने बचपन के दिनों में । कॉमिक्‍स का शौक लगा तो इंद्रजाल कॉमिक्‍स की सारी सीरीज पढ़ डालीं । उन दिनों भोपाल में प्राईवेट-लाईब्रेरी वाला सिस्‍टम होता था । बाप रे कितनी भीड़ होती थी काउंटर पर । पंद्रह रूपये डिपॉजिट और पच्‍चीस पैसे प्रति कॉमिक्‍स किराया । इंद्रजाल कॉमिक्‍स के अलावा आप ही की तरह लोटपोट, अनंत पै वाली अमर चित्र कथा का जिक्र करना आप भूल गये । मधुमुस्‍कान बहुत पढ़ी । टिंकल पढ़ी । अब ऐसा करते हैं हम भी एक पोस्‍ट छापते हैं इस विषय पर जल्‍दी ही । बचपन की कॉमिक्‍स ओर किताबों पर । अभी तो इतना बता दें कि बच्‍चों की टोली कॉमिक्‍स किराए पर लेती और एक ही दिन में सब बदल बदल कर ग्रुप में पढ़ लेते सारी की सारी । एक कॉमिक में पांच पांच लोग झांकते । छीना छपटी करते । लाइब्रेरी वाले को बट्टा लगा देते । वाह क्‍या दिन थे वो । अच्‍छा ये बताईये कि मधुमुस्‍कान वाला ये पन्‍ना कहां से मिला ।

  3. यह ‘वह भी क्या दिन थे’ वाली बात समझ नहीं आयी । दिन तो अभी भी हैं और आज भी हम कॉमिक्स पढ़ते हैं । हमारे सहयोगी धीरू आदि न थे । हम तो अपनी बेटियों से भी मिलबाँट पढ़ते थे । अब भी पढ़ते हैं । हमारे कॉमिक्स मेरी बेटियों व मेरे बीच में यात्रा करते रहते हैं । आर्चीज़ , कैल्विन एन्ड होब्स आदि मेरे पतिदेव व बेटियों के पतियों से भी बाँटे जाते हैं । जब भी कोई किसी से मिलने जा रही होती है तो प्रश्न होता है कि कौन सी पुस्तकें अन्य ने नहीं पढ़ीं हैं वे लाई जाएँ और कॉमिक्स भी ।
    घुघूती बासूती

  4. बहुत बढ़िया अपने बचपन की यादे तरोताजा कर दी हालाकि जब कभी मौका मिलता है टू कामिक्स पढ़ता जरुर हूँ .

  5. अरे भाई, यूँ ही कम नहीं भटक रहे हैं हम पुरानी यादों में, आप और धक्का लगाने आ गये?? 🙂

  6. सही लिखा भाई/ अच्छी याद दिलाई – अब थोड़ी सफाई – (१) दीवाना में “चिल्ली” होता था, (बाद में जब अंगरेजी पढ़ना शुरू किए तब समझ आया के तेज प्रकाशन mad magazine को टोप रहा था) (२) , मोटू पतलू और डाक्टर झटका की शुरुआत लोट पोट से हुई , (चाचा चौधरी भी पहले शायद लोट पोट से ही शुरू हुए थे) (३) नन्हाँ जासूस बब्लू – मधु मुस्कान में होता था – ऐसे ही लिखते रहें – मज़ा आया – rgds – मनीष –

  7. ये रही मधु मुस्कान की लिंक:
    http://www.mediafire.com/?6yok9l0d99w

    इस page से:

    http://comic-guy.blogspot.com/2008/01/comic-no67madhumuskan-no212.html

  8. फैंटम पसन्दीदा पात्र था, आज भी बच्चे को इसकी कॉमिक दिला कर खुद भी पढ़ लेता हूँ 🙂

  9. बचपन के दिन याद दिला दिये आपने तो। आज की कामिक्स में वो मजा नहीं जो पहले था।

  10. मित्र ! लगता है आपने “पराग” नामक बाल-पत्रिका नहीं पढ़ा ! इसमें ‘शुजा’ नामक एक कॉमिक्स धारावाहिक रूप में छपती रही (कदाचित् सन् 1973 ई० की बात है)हमनें अपने पिता जी के व्यक्तिगत पुस्तकालय में इसे पढ़ा था, जो अब बड़े भैय्या जी के पास है !

  11. भाई वाह ….आपका ब्लॉग देर से नज़र में आया ,काफी अच्छा लगा,आपकी लेखन शैली भी जुदा है.यह कॉमिक्स वाला लेख काफी पूरानी यादों को ताज़ा कर गया।
    मै भी पूरानी यादों को सोच सोच कर रोमांचित होता रहता हूँ ,खासकर कॉमिक्स से जुड़ी यादों को..जिसकी खातिर ख़ुद का भी एक छोटा सा ब्लॉग है जहा से आपने इन कॉमिक्सों के चित्र लिए हैं।
    कॉमिक्सों के चित्र लिए कोई बात नही पर ये देखकर निराशा हुई की आपने इन चित्रों के स्रोत का ज़िक्र भी नही किया मुख्य लेख में..चूँकि सारे चित्र मेरे ख़ुद के स्कैन किए हुए है इसलिए अपने ब्लॉग का नाम आपके लेख पर न पाकर थोडी सी नाउम्मीदी हुई..खैर कोई बात नही अगर आपके दोस्तों को पूरानी कॉमिक्स जैसे के मधुमुस्कान,दीवाना,इंद्रजाल कॉमिक्स आदि की तलाश हो तो वो इस नाचीज़ के ब्लॉग से प्राप्त के जा सकती हैं.
    मेरा ब्लॉग पता है http://www.comic-guy.blogspot.com

  12. कॉमिक्सों के चित्र लिए कोई बात नही पर ये देखकर निराशा हुई की आपने इन चित्रों के स्रोत का ज़िक्र भी नही किया मुख्य लेख में..चूँकि सारे चित्र मेरे ख़ुद के स्कैन किए हुए है इसलिए अपने ब्लॉग का नाम आपके लेख पर न पाकर थोडी सी नाउम्मीदी हुई..खैर कोई बात नही अगर आपके दोस्तों को पूरानी कॉमिक्स जैसे के मधुमुस्कान,दीवाना,इंद्रजाल कॉमिक्स आदि की तलाश हो तो वो इस नाचीज़ के ब्लॉग से प्राप्त के जा सकती हैं.

    कामिक वाले भैया, आपका जिक्र किया तो है, लिंक भी दिया हुआ है कामिक्स वर्ल्ड के नाम से (शायद आपने ध्यान नही दिया। आपका लिंक कैसे नही देते, ये कामिक्स ऑनलाइन देखकर ही तो लेख लिखने की प्रेरणा मिली थी। चलो फिर से आपका लिंक दे देते है, अब चित्र सौजन्य से करके। खुश रहो, मस्त रहो।

  13. जितु भैया आपका तीव्र्गामी उत्तर दखकर प्रसन्न्ता हुई… पिछले दिनो ही एक बहुत पुरानी मधुमुस्कान पोस्ट की है ,समय निकाल के पढ़िएगा मज़ा आएगा।
    लिन्क है http://comic-guy.blogspot.com/2008/08/comic-no93madhumuskan-no113.html

  14. 🙂

    Prashant (PD)’s last blog post..अरे! मैं लेखक कब से बन गया?

  15. dua hai sabhi ko apna bachapan yaad rahe
    in bachpan ki yado ka he to karam he ki hamme aaj bhi wo ek nnha sa baccha zinda he jo hamare bacpan ko bhul nahi pata or aaj bhi bacho ki tarah sab me ghul mel jata he. jo saksh apne antar man me chupe bacce ko bhul gya wo aaj yaha aatank wad ho gya

  16. वैरी इंट्रेस्टिंग ….

  17. Jeetu bhai! dhanyavad ! mujhe ye jaankar khushi hui kih, Indrajaal Comics ke deewane abhi bhi hain.In comics ka prakashan kion aur kab band hua yeh main to nahin janta.Main kafi samay se in comics ko khoj raha tha, aap jaise bhaion ke karan un purani yadon se judne ka mauka mila. Hum bhaion men aksar comic padne ke liye jhagra hota tha. ab to kafi purani baat ho gayi, dhayavad aapka jo apne hum comics ke deewanon ke liye itni mehnat ki aur purani yaden taaji kar di.

  18. मुझे ।बचपन ।से ही काँमिक्स पढ़ने का शौक रहा ।हैं नागराज और ध्रुव की कामिक्स मनोरंजन का खजाना होती थी मेरे लिए ।