रीठेल : हमारी छुट्टी का विवरण

लीजिए पेश है, एक पुराने लेख का रीठेल, ये लेख 2006 मे लिखा गया था, तब से लेकर अब तक तीन साल बीत चुके है, लेकिन हफ़्ते की छुट्टी का तरीका नही बदला, इस लेख मे कंही कंही आपको स्वयं का चेहरा नजर आएगा, जहाँ भी नजर आए, टिप्पणी करने से चूकिएगा मत। तो लीजिए पेश है, हमारी हफ़्ते की छुट्टी के कत्ल की स्टोरी।

अभी प्रत्यक्षा जी का छुट्टी का विवरण पढा, ना जाने क्यों हमे उनका विवरण पढकर अपने घर का छुट्टी का माहौल याद आ गया। तो जनाब एक नजर डालिए हमारे विवरण पर:

relax जहाँ सारी दुनिया रविवार को चैन से छुट्टी मनाती है, वही हम रविवार को आफिस मे कीबोर्ड पर टिकटिक किया करते है। अब भई हमारे यहाँ छुट्टी रविवार की जगह, शुक्रवार को जो होती है। वैसे तो हमारा आफिस शुक्रवार और शनिवार को बन्द रहता है, लेकिन स्कूल वगैरहा गुरुवार और शुक्रवार को बन्द रहते है। इसलिए हमारे हमारे घर में तो असली छुट्टी वाला माहौल शुक्रवार को रहता है।
मजाल है हमे कोई १० बजे से पहले जगाने की जुर्रत करें। उसके बाद बैड टी का दौर शुरु होता है। बहुत मान मनौव्वल के बाद हम नहाने को तैयार होते है। नहाने मे भी हम पूरे हफ़्ते की कसर निकालते है, जहाँ काम के दिनो मे हमारे नहाने का समय आधा घन्टा होता है, वंही छुट्टी वाले दिन हम पूरे दो घन्टे तक नहाते है। बाथटब मे लेटकर, इन्डिया टूडे पढने का मजा ही कुछ और है। अब शुकुल पूछेंगे कि इत्ती देर काहे लगाते हो, हमारी मर्जी। शुकुल चाहे तो वो भी तीन घन्टे नहा लें, हमने कभी सवाल किया का? नए लोग हमारी स्नान महत्ता को पढें। अब आगे चला जाए।

अब नहाना धोना तो हो गया अब मसला नाश्ते का होता है, यहाँ पर हम अंग्रेजों को जरुर कोसते है, सालों ने पता नही क्या सोचकर एक शब्द बनाया है ब्रन्ज (Brunch), मतलब जो ब्रेकफ़ास्ट और लंच के बीच खाया जाए, वो ब्रन्च, ये भी कोई बात हुई? हमारा अच्छा खासा लंच मे पंगा डाल दिए। यहाँ पर श्रीमती जी का पुराण शुरु हो जाता है, वही हाई कैलोरी, फाइबर, शुगर,कोलेस्ट्रोल और ना जाने क्या क्या। ये पत्नियां डाक्टर की तरह जानकारी क्यों रखती है यार? अब किसी तरह लंच सॉरी ब्रन्च निपटता है तो हमको ग्रासरी के सामानों की लिस्ट थमा दी जाती है और प्राथमिकताएं बता दी जाती है। अक्सर प्राथमिकताए, अर्जेन्ट होती है। हम भी उस लिस्ट को सरकारी बाबू की घूस के पैसों की तरह जेब के किसी कोने मे सरका देते है। इस बीच हफ़्ते भर मे घर मे क्या क्या टूट फूट हुई और क्या क्या ठीक करना है इसका लेखा जोखा हमको दिया जाता है। ये जानकारी होती है या ठीक करने का फ़रमान, अभी इस पर रिसर्च जारी है। अब प्राथमिकताएं बदलने लगती है, ग्रासरी का सामान या टूटफूट को ठीक करना। अंतत: ये हमारे विवेक पर छोड़ दिया जाता है, विवेक क्या, मर्जी बोलो यार! हम भी इसको टालने की कोशिश करते हुए, दस मे से एक टूट फूट को ठीक करते है। इस बीच पिछली चीजे सही तरीके से ना ठीक करना का ठिया भी हमारे सर फोड़ा जाता है। अजीब प्राबलम है यार, करो तो मरो, और ना करो तो तब भी मरो।

computer अब तक दिन के दो तीन बज चुके होते है, हम जित्ता हो सकता है करते है, बाकी को अगले हफ़्ते पर सरका कर, कम्पयूटर की तरफ़ टरक लेते है आप लोगों के ब्लॉग पढने के लिए और इमेल्स का जवाब देने के लिए बैठ जाते है। बस इतना होना होता है कि श्रीमती के दिमाग का पारा चढने लगता है और उनका ओजस्वी भाषण पूरे जोशो खरोश के साथ शुरु होता है, जिसमे कम्प्यूटर, ब्लॉग, टीवी, न्यूज चैनल, मिर्जा, स्वामी (किरकिट स्वामी), (और अब सैटेलाइट रेडियो भी शामिल) किसी को भी नही बख्शा जाता। सबको समान रुप से गरिआया जाता है। अब बताओ यार, आदमी छुट्टी के दिन इन सबके बिना कैसे रह सकता सकता है? एक घन्टे के भाषण प्रसारण के बाद, श्रीमती जी थक जाती है तो आराम के लिए शयनकक्ष का रुख करती है और हम? अबे हम कम्प्यूटर से हटे ही कहाँ थे?

शाम को चायकाल के दौरान (नोट किया जाए, बिस्कुटों खाने के नुकसान के भाषण के साथ) ग्रासरी और रात के डिनर का प्रोग्राम बनता है। अब हम एक ड्राइवर की भूमिका मे अवतरित होते है और पूरे परिवार को आदर के साथ डिपार्टमेन्टल स्टोर मे ले जाते है। यहाँ पर भी परेशानी, सबसे पहले तो पार्किंग की जगह ढूंढो, ये बड़ी मशक्कत का काम है, अपने अतुल अरोरा ने तो इस पर पूरा अध्यात्म लिख मारा है। पार्किंग से जूझने के बाद, डिपार्टमेन्टल मे धक्का मुक्की के बीच ट्राली चलाना भी बहुत हिम्मत का काम है। वहाँ पर हम ट्राली चलाते हुए किसी घरेलू रामू की तरह दिखते है। सभी लोग भर भर कर सामान लाते है और ट्राली को ठसाठस भर देते है। भरी ट्राली को.बिना सामान गिराए, भीड़ के बीच से बचाकर लाते समय हमको इतना गर्व का एहसास होता है कि पूछो मत। लेकिन यार हम आज तक नही समझ सके कि हर हफ्ते सामन से भरी ट्राली, घर मे कहाँ गुम हो जाती है? खैर ट्राली जब कैश काउन्टर तक पहुँचती है तो हमे जरुर याद किया जाता है काहे? अबे पैमेन्ट कौन करेगा? अब हम कैशियर का रोल भी निभाते है अब सामानों का बिल है कि फुरसतिया का लेख, हर बार लम्बा होता जाता है। यहाँ से निबटने के बाद, गाड़ी मे सामान लगाना और फिर ड्राइवर की ड्यूटी निभाना। अब बारी आती है बिटिया की गेम्स के लिए फैलने की, यहाँ पर हमारी कतई नही चलती। हमको मन मारकर किसी गेमपार्लर मे जाना ही पड़ता है। वहाँ पर इतना शोर होता है कि जी करता है भाग जाएं लेकिन क्या करें। पिछ्ली बार हमको ट्रैप करके ये लोग एक बाऊलिंग ऐली मे ले गए थे। गेम क्या है, अजीब तमाशा है। एक भारी सी बॉल उठाओ, और कुछ दूरी पर रखे डंडो को गिराना होता है। हमने भी मोतीझील के शरद मेलों मे बहुत सारे गिलास गिराए थे, लेकिन यहाँ बॉल बहुत भारी है। खैर पुराना अनुभव काम आया, और हम जीते भी। लेकिन एक पंगा हो गया, दाएं हाथ की बीच वाली अंगुली खिंच गयी, अब दो दिन का आराम। इसे कहते है गेमिंग प्रोबलम।

foodअब बारी आती है डिनर के लिए किसी रेस्टोरेंट या फास्ट फूट मे जाने की। रात का डिनर किसी फास्ट फूड (मेरा बस चले तो सभी फास्ट फूड वालों को बन्द करवा दूं) या किसी रेस्टोरेंट मे होता है। वहाँ पर लाइन मे लगकर मै यह सोचता हूँ कि क्या हम किसी राशन की दुकान मे खड़े है? या जेल मे खाने की लाइन में? हमारे यहाँ हिन्दुस्तान मे तो गुरद्वारे मे भी सलीके से बैठाकर लंगर खिलाया जाता था। सबसे पहले तो डिश सिलेक्ट करो, उसमे अक्सर मेरे से नही पूछा जाता। काहे? अब इतनी रामकथा हो गयी अब भी पूछते हो काहे? डिश सिलेक्ट करने के बाद हमारी तरफ़ आशा भरी निगाहों से देखा जाता है, लाइन मे लगने के लिये यार! हमको लाइन मे लगने में बड़ी कोफ़्त होती है यहाँ तो पैसे देने के बावजूद भी लाइन मे खड़े रहकर पर्ची कटाओ, टोकन लो, फिर दौड़ दौड़कर सामान लाओ। अपने खाने का तो पूरा तिया पांचा हो जाता है। इसे कहते है पश्चिमी सभ्यता।

रात का डिनर निबटाते निबटाते काफ़ी लेट हो जाता है, और हम घर लौटते है। घर लौटकर सारा ग्रासरी का सामान लगवाने मे श्रीमती जी की हैल्प (हैल्प क्या यार! अक्सर हमे ही फ्रन्ट मे डालकर वो बैकफुट पर रहती है) करानी होती है फिर शुरु होता है मिसिंग आइटम या एक्स्ट्रा आइटम पर बहस। अगर मिसिंग है तो इल्जाम हम पर आता है कि याद क्यों नही कराया और अगर एक्स्ट्रा आता है तो भी इल्जाम हम पर ही आता है काहे उठाया, जब घर पर पड़ा था थो। जिम्मेदार लोगों के साथ ऐसा ही होता है, हर दिक्कत की जिम्मेदारी भी हम पर ही डाली जाती है। अब तो हमको आदत हो गयी है इसलिए हम बुरा नही मानते, बल्कि इन्तजार करते है कि इस इवेन्ट का टाइम कब आएगा। इस तरह से हमारा छुट्टी का दिन समाप्त होता है।

आशा है आप काफ़ी बोर हुए होंगे, लेकिन अब मेरे को किसी ना किसी को तो सुनाना ही था, आप ही सही। ये था हमारा छुट्टी का दिन, आप लोगों का दिन कैसा बीता?

सभी कार्टून सौजन्य से : courtsey

Comments are closed.