रिमझिम सावन की बरसती यादें

बचपन मे गर्मियों की छुट्टियाँ खत्म होते ही स्कूल जाने के नाम से हम सबको यानि वानर सेना को बुखार आ जाता था. लेकिन मन को समझाना पड़ता था और दिल को दिलासा दिया जाता कि चिन्ता मत करो, जल्द ही अगस्त आने वाला है. अगस्त का महीना, तीज त्योहारों का महीना होता है, एक मायने मे देखा जाये तो अगस्त से त्योहारों के आने का जो सिलसिला शुरु होता था तो नवम्बर दिसम्बर मे दीपावली के आने पर ही थमता था. सबसे पहले स्वतन्त्रता दिवस वगैरहा की बात की जाय, ये दिन हमारे लिये महत्वपूर्ण होते थे, क्योंकि स्कूल जाते थे सिर्फ झन्डारोहण करने. झन्डारोहण का क्या था, बस लड्डू खाने जाते थे. प्रिंसिपल और मुख्य अतिथि का पकाऊ भाषण सुनते सुनते, हमारी नजरें बंसीलाल चपरासी को ही ढूंढती क्यों? अरे भाई लड्डू के डब्बे, वितरण से पहले, उसी के कब्जे मे रहते थे.बहुत खड़ूस किस्म का बन्दा था, हम लोग लाख मिन्नतें कर ले, लड्डू की टोकरी के आसपास भी नही फटकने देता था. सभी सावधान की मुद्रा मे खड़े रहते और राष्ट्रीयगान का इन्तज़ार करते. क्योंकि राष्ट्रीय गान के तुरन्त बाद लड्डू मिलते थे. हम लोग भाग कर, धक्का मुक्की करते हुए, लाइन मे सबसे पहले लगते.कभी कभी लड्डू मिलने मे देर हो जाती, तब हम सबका मुँह ऐसे लटक जाता कि जैसे बहुत बड़ा नुकसान हो गया हो….. हम लोग एक काम और करते, स्वतन्त्रता दिवस वाले दिन मै,धीरू,देवीप्रसाद और सुक्खी, अपने स्कूल जाने के साथ साथ, बगल वाले स्कूल भी जाते. हमें अपने स्कूल से एक झन्डा मिलता था, अब इस झन्डे का किया क्या जाय. तो भईया बहुत सोच विचार के बात तय हुआ कि हम लोग बगल वाले स्कूल मे जायेंगे और वहाँ की मुख्य अध्यापिका को झन्डा टिका देंगे. हम सबने ऐसा ही किया, किसी ने प्रिंसिपल को टिकाया, किसी ने मुख्य अतिथि को तो किसी ने मुख्य अध्यापिका को और साथ ही स्वतन्त्रता दिवस की बधाईया भी दे डाली. वे तो गदगद हो गये, कई कई बार तो लड्डू के साथ साथ कुछ और भी गिफ्ट मिली.वे लोग सोचे कि बड़े शालीन बच्चे है, उन्हे क्या पता था, कि हम लोग ये सारा काम लड्डुओं के लिये कर रहे है. लेकिन सारा काम इतनी प्लानिंग के साथ होता था कि किसी को भी हवा नही लगती थी. लेकिन अपना सुक्खी एक बार फँस गया, वहाँ के लड़को ने उससे पूछा कि कौन से क्लास मे हो, तो सुक्खी सही तरीके से बता नही सका, फिर ऊपर से उस स्कूल मे गिनती के सरदार थे. उस दिन लड़कों ने सुक्खी को पकड़कर सूत दिया.(सूत दिया की व्याख्या फुरसतिया जी करेंगे.) अगले बार इस प्लानिंग से सुक्खी को बाहर रखा गया, अब सुक्खी बाहर खड़े होकर,हमारे अपने स्कूल से मिले मिठाई के डब्बों की रखवाली करता था.अब लड्डू तो मिल गये, अब झगड़ा शुरु होता था, किसने सबसे ज्यादा मेहनत की है, देबीप्रसाद का डील डौल देखकर कोई उससे पंगा नही लेना चाहता था, लेकिन धीरू भागने मे बहुत तेज था, इसलिये सारे पैकैट लेकर वो भाग लेता था, देबीप्रसाद दौड़ नही पाता था, इसलिये जल्द ही हार मान लेता, धीरू उसको दो या तीन पैकेट टिकाकर, बाकी के पैकेट कंही छिपा देता था और फिर हम लोग घर वापसी के रास्ते मे सारे लड्डू खाते और मौज करते.

Sawan

अब बात की जाये सावन की. सावन के आने की आहट जुलाई मे ही सुनाई देने लगती थी, जब दूसरे शहरों मे ब्याही लड़किया अपने अपने पीहर लौटती, सखी सहेलियों से हंसी ठिठोली करती और कुछ समय के लिये अपने वर्तमान और अपनी पारिवारिक चिन्ताओं को अपने ससुराल मे छोड़, अपने बाबुल के अंगने मे अपने खोये बचपन को ढूंढती. पूरे मोहल्ले मे मेले वाला माहौल होता, बड़े बुढे, अपने अपने घर के बाहर बैठकर गप्पबाजी करते,आपस मे छेड़खानी वाली बातें करते और अक्सर ये जुमला बोलते “अभी कल ही ये लड़की पैदा हुई थी, जाने कब बड़ी हो गयी, शादी हो गयी….वगैरहा वगैरहा”. लेकिन हम लोगों के लिये सावन का खास ही मतलब होता, अब चूँकि सावन मे मौसम भी सुहावना होता, तो हमारे लिये सावन तो पतंगबाजी का सीजन होता. पतंगे भी एक से एक, हमलोग पतंग लाने चमनगंज जाते, अब्दुल गनी की दुकान से, बड़े बड़े ढउऐ(सबसे बड़ी पतंग को ढउआ बोलते है), साथ मे सद्दी (मोटा धागा, माँझे के साथ प्रयोग होता है) की लटाई और माँझे के चव्वे. माँझा सबसे अच्छा मिलता था, बकरमन्डी के पास इश्तियाक मियाँ के पास. हम लोग अक्सर सुबह सुबह पतंगबाजी के सामान जुगाड़ करने के लिये निकलते, घन्टो इश्तियाक मियां को माँझा बनाते हुए देखते, उनसे माँझेबाजी के गुर सीखते और मोहल्ले मे आकर लम्बी लम्बी हाँकते. एक बार हम लोगों को माँझा बनाने का शौँक चर्राया, इसका किस्सा काफी बड़ा है, इसलिये अलग पोस्ट मे लिखूँगा, आप आगे पढिये……………..साढे तीन बजते ही हम लोग छत पर पहुँच जाते और फिर शुरु होता पतंगबाजी का दौर, जैसे जैस शाम होती, पतंगबाजों की संख्या बढती जाती. जमकर पतंगबाजी होती. अक्सर शामें छत पर गुजरती. लेकिन कई कई बार हम बच्चो के साथ बहुत नाइन्साफी होती….कई बार तो पूरा का पूरा परिवार छत पर आ जुटता,तब हम निर्दोष और नादान बच्चों की एक ना चलती सारा पतंगबाजी का सामान लुट जाता, एक दो झापड़ खाने के बाद हम लोग बिना ना नुकुर किये एक किनारे अपना सामान लुटते हुए देखते. परिवार के सारे सदस्य छत पर जमा रहते कुछ लोग पतंग उड़ाते, कुछ लटाई थामते, कुछ लोग लंगड़ डालते, सबको बहुत मजा आता और हम? अरे भइया पानी पिलाने से लेकर, चाय नाश्ता वगैरहा लाने के लिये लगा दिया जाता.लेकिन ये कभी कभी होता, बाकी समय तो हम बच्चे लोग ही छत के राजा होते, सारी शाम जमकर पतंगबाजी होती, लेकिन शाम ढलते ही, अंधेरा छाते छाते, नीचे से आवाजें आनी शुरु हो जाती और लेकिन हम सबकी आवाजों को अनसुना करके, वंही टंगे रहते. इस पतंगबाजी मे भी बहुत चोटे खायी हम सबने, मै तीन बार और धीरू दो बार छत से गिरा, एक बार मेरे को बचाते बचाते खुद गिरा, एक बार…(किसी को बताना नही)…..तो मैने ही धक्का दिया था. बाद मे मै मुकर गया, कि मैने धक्का दिया था, लेकिन धीरू सच्चा दोस्त है, उसको पता था मैने उसको गिराया लेकिन मजाल है कि उसने किसी से कहा हो. खैर अब सावन था तो बारिश होना स्वाभाविक ही है, पूर्णिमा वर्मन जी के कुछ बरसाती दोहे याद आ रहे है


भादों आया देख के हुई सुहानी शाम
मौसम भी लिखने लगा पत्तों पे पैगाम।
चादर ओढ़ी सुरमई छोड़ सिंदूरी गाम
बात बात में बढ़ गयी बारिश से पहचान।
गिलयारे पानी भरे आंगन भरे फुहार
सावन बरसा झूम के भादों बही बयार।
पूर्णिमा वर्मन जी

खैर जनाब, ट्रैक से मत भटकिये, वापस लौटते है अपने मुद्दे पर, जब तक मौसम सुहावना रहता, हम लोग छत पर टंगे रहते और पतंगबाजी करते, ना खाने की चिन्ता होती, ना भूख लगती ना प्यास लगती. जब तक कोई डन्डा लेकर मारने नही आता, तब तक छत से नीचे उतरने का तो सवाल ही नही पैदा होता. अब जब बारिश होती, तब ही हम लोग या तो छत पर चढ जाते, नहाने के लिये या फिर जब्बर की दुकान से किराये की साइकिल लेकर निकल पड़ते रोड पर,( जब्बर को हम लोग लाखों लानते और गालियाँ भेजते थे, क्योंकि अक्सर उसकी साइकिलों मे ब्रेक काम नही करता था) जितनी तेज बारिश, उतनी ही तेज साइकिल चलती थी. कई बार गिरे पड़े, कीचड़ मे सने, लेकिन मज़ाल है जो कभी बीमार पड़े हों. बारिश खत्म होने के बाद नालियों मे पानी भर जाता, अगर नही भी भरता था तो हम लोग नालियों मे कन्चे डाल डाल कर पानी की निकासी को जाम कर देते थे, क्यों? अरे भईया कागज की नावें आपके घर पर आकर चलायेंगे क्या? फिर शुरु होता नाली मे नावें चलाने का दौर, मानना पड़ेगा धीरू इस काम मे हमसे तेज था, उसकी नाव कभी पलटती नही थी, हमारी नाव तो टुन्न होकर चलती, इधर उधर टकराती और फिर दन्न से पलट जाती. लेकिन धीरू की नाव का क्या कहना, चाहे जितना कचरा हो नाली मे उसकी नाव हमेशा आखिरी तक जाती, हम लोग उसकी नाँव को पत्थर मार मार कर गिराने की कोशिश करते, नाव ना गिरती तो धीरू हैकड़ी करता, और अगर गिर जाती तो खूब झगड़ा होता, मार कुटाई होती, कीचड़ मे कुश्ती का मजा ही कुछ और होता है.कीचड़ मे सने सनाय घर लौटते तो वहाँ पिटाई होती सो अलग. तो जनाब इस तरह हम लोग सावन मनाते.

इसी महीने मे हमारे मोहल्ले मे झूलेलाल महोत्सव होता, जो कानपुर का एक मशहूर महोत्सव है. बहुत सारी झाँकिया निकलती, मेले तमाशे होते, झूले वगैरहा लगते. जलूस निकलता, जिसमे सामजिक बुराईयों से सम्बंधित झाँकिया निकलती जिसमे अक्सर मेरे को भी कुछ ना कुछ बनना पड़ता, खूब मौज मस्ती होती, समय कैसे निकलता पता ही नही चलता. कुल मिलाकर जुलाई अगस्त के महीने मे मौज ही मौज होती. आपकी भी कुछ यादें होगी, बचपन से सम्बंधित, तो शरमाइये नही लिख डालिये.जिस किसी सज्जन को ढउवे,सद्दी,मान्झा और सूत डाला से सम्बंधित कोई सवाल या जिज्ञासा हो तो फुरसतिया जी से पूछ डाले, वे उदाहरण सहित व्याख्या कर देंगे.

मोहल्ला पुराण और उससे सम्बंधित और लेख यहाँ पढिये……

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One Response to “रिमझिम सावन की बरसती यादें”

  1. hi there

    well the post is really interesting…like it takes u back to those golden daze of your life…Jitendra ji has done it again…like have read some of the posts and really like the hindi ones…i mean the posts give u a feeling like he’s talkin to u..and really like the writing style since i usually use this kind of accent in my talks too..its so Indian…besides, about this post, i want to say…being a gurl i was always left out in case of Patangbaazi.. but i was obsessed wid it (Like some of other things which a gurl should not rightfully indulge into…)but i managed to try it somehow which resulted into daily loss of my kites (a pest use to take them everytime my kites got airlifted, man i hate him gee–he he he), i was under the guidance of one of my bhaiyaas..but despite his efforts i failed to learn it and continued loosing kites. Much to the relief of everyone this craze faded somehow…but still sometimes i think of doing this patangbaazi…maybe it could be by read some of Jitendra ji’s posts…maybe i could relive my golden daze again…

    and Jitendra Ji, I can sense you were quite a brat when you were kid..but one should enjoy every moment of his/her life…isnt it???

    thats all from me.I hope its not that bad.
    bbyes
    Nivedita