परमाणु समझौता – कौन कितने फायदे में

अभी पिछले हफ़्ते अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत आये थे।मकसद: भारत और अमरीका ने एक परमाणु समझौते पर सहमति बनाई है, अभी इसे समझौता कहना सही नही होगा, क्योंकि इस समझौते को अमरीकी कांग्रेस का समर्थन भी चाहिये। इस सहमति के पक्ष और विपक्ष मे बहुत कुछ कहा गया है। मै बीबीसी हिन्दी की वैबसाइट पर पाठकों की टिप्पणियां पढ रहा था। क्या बात है आप भी जरुर पढियेगा। जरा बानगी देखिये,बीबीसी हिन्दी पर एक प्रतिक्रिया के रुप मे आजमगढ उत्तरप्रदेश के जकी अख्तर ने बहुत सटीक और बेबाक टिप्पणी की है, वे कहते है :

अमरीका की न दोस्ती अच्छी न ही दुश्मनी.क्योंकि अमरीका मेरी नजर में उस तवायफ़ की भांति है जो अपने फायदे के लिये किसी के साथ रात बिता कर सुबह उसकी जान ले लेती है. सद्दाम और ओसामा भी कभी इनके हमप्याला थे.

एक और टिप्पणी है :

दोस्ती कर लें पर सावधान भी रहें, अमरीका एक काउ बॉय देश है, जहां जब तक गाय दूध देती है तब तक ही उसे चारा दिया जाता है और दूध खत्म होते ही उसे कसाईखाने भेज दिया जाता है. रूस के लिये तालिबान, ईरान के लिये सद्दाम, तो फिर चीन के लिये भी तो कोई होना चाहिये, शायद ऐसा ही कुछ चल रहा होगा बुश के दिमाग़ में

-इदरीस ए. खान, रियाद, सऊदी अरब

लेकिन इन सभी बातों पर गौर करने से पहले हमे कुछ इतिहास को समझना जरुरी होगा, ताकि इस विषय पर ढंग से विचार विमर्श किया जा सके।

सन १९४७ मे भारत की आजादी के बाद, बढती ऊर्जा जरुरतो को देखते हुए, परमाणु ऊर्जा संयत्रों की जरुरत महसूस की जाने लगी थी।
१९५० :अमरीका ने भारत को तारापुर परमाणु संयंत्र बनाने मदद की और ईधन मुहैया कराने को तैयार हो गया। शर्त सिर्फ़ यही थी, परमाणु उर्जा का इस्तेमाल शान्ति के कार्यों मे किया जायेगा।
चीनी हमले के बाद,चीन ने अपना परमाणु परीक्षण किया तभी भारतीय हुक्मरानों को परमाणु शक्ति सम्पन्न होने की जरुरत महसूस होने लगी।भारतीय नेताओ ने अमरीका से परमाणु बम तक की मांग की थी, जिसे अमरीका ने ठुकरा दी थी और ताना मारकर कहा था, चाहो तो अपने आप बना लो (अमरीका जानता था कि भारत के पास तकनीक नही है।) भारतीय वैज्ञानिकों ने खून पसीना एक करके परमाणु शस्त्र तकनीक पर काम शुरु किया। इधर अमरीका के दिमाग मे खलबली मच गयी।
१९६८ : अमरीका ने भारत पर परमाणु अप्रसार संधि स्वीकार करने का दबाव डाला। जिसे भारत ने अस्वीकार कर दिया।
१९७४ : भारत ने प्रथम परमाणु परीक्षण किया।अमरीका ने सहयोग करना बन्द कर दिया और प्रतिबन्ध लगा दिये। भारत ने तब तक रूस का दामन थाम लिया था, ये भारत अमरीका के खराब सम्बंधो का दौर था जो कई दशक चला।शीत युद्द का समय था, इसी समय एक और नाटक चला जिसे लोग गुट निरपेक्ष आन्दोलन कहते है, मुझे आज तक समझ नही आया, रूस के साथ रहते रहते भारत गुट निरपेक्ष आन्दोलन का मुखिया कैसे रहा। खैर हम पथ से नही भटकते,इस मसले पर फिर कभी बात करेंगे।

पड़ोसी देश पाकिस्तान ने अमरीका दामन थाम लिया, फलस्वरुप अमरीका से हमारे सम्बंध कभी नरम तो कभी गरम रहे।
१९९८ : अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बावजूद परमाणु परीक्षण किया।

समय बदला, भारत के तकनीकी ज्ञान ने विश्व मे पहचान बनाई।लेकिन उससे बड़ी बात भारत एक बहुत ही बड़ा उपभोक्ता बाजार बनकर उभरा और अर्थव्यवस्था भी सही रास्ते पर चल पडी है। इसलिये अमरीका को भी अपना रुख लचीला करना पड़ा।
२००० : अमरीका ने भारत के साथ सामरिक साझेदारी बनाने की ओर कदम बढाये।
१८ जुलाई, २००५ : अमरीका और भारत, परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण प्रयोग के सहयोग रजामन्द हुए और एक करार पर हस्ताक्षर हुए।

मार्च २००६ : इस परमाणु समझौते पर सहमति। इस समझौते के तहत, भारत अपने २२ मे से १४ परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को अंतर्राष्ट्रीय निगरानी मे रखने को तैयार हो गया, जिसके बदले मे उसे परमाणु ऊर्जा मिलेगी और सारे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबन्ध हटा लिये जायेंगे।अभी इस समझौते को अमरीकी संसद की मंजूरी मिलनी बाकी है।

लेकिन अमरीका क्या चाहता है?
निश्चय ही अमरीका यहाँ पर चैरिटी करने तो नही आया। परमाणु समझौता वो भी भारत की शर्तों पर, बात कुछ हजम नही होती। अमरीका का थिंक टैंक बहुत ही दूरगामी सोच रहा है। शीतयुद्द के समाप्त होने के बाद अमरीका को रूस से इतना खतरा नही है, जितना उसे चीन की बढती हुई ताकत से है। निसंदेह चीन सबसे ज्यादा तेजी से आगे आ रहा है, आर्थिक और सामरिक रुप से भी। आने वाले वर्षों मे चीन की अर्थव्यवस्था दिन दूनी और रात चौगुनी की प्रगति करेगी, इससे चीन पर लगाम कसना और मुश्किल होता जायेगा।इसीलिये अमरीका जो स्वयंभू विश्वविधाता है, उसे एक एशिया मे एक विश्वसनीय साथी चाहिये, इसमे भारत काफी सही तरीके से फिट बैठता है।

दूसरे अमरीका को भारत की परमाणु ईधन के पुन:प्रयोग की तकनीक भी चाहिये, ताकि वो तेल पर अपनी निर्भरता घटा सके। और आखिरी बात, उसे एशिया प्रशान्त क्षेत्र मे सतर्क पहरेदार चाहिये, जो भारत के रुप मे उसे मिल गया है। अमरीका का इतिहास है, जब तक जरुरत होती है, वो सबको माईबाप बना लेता है, जरुरत पूरी होते ही, कैसा व्यवहार करता है, बताने की जरुरत नही।

लेकिन इस समझौते के कई पहलू है, इन्ही पर नजर डालेंगे, अगली पोस्ट मे… इन्तजार कीजिये।

आप क्या सोचते है इस समझौते के बारे मे, अपने विचार अपने चिट्ठे अथवा टिप्पणी मे अवश्य लिखियेगा।

5 Responses to “परमाणु समझौता – कौन कितने फायदे में”

  1. ये जो परमाणु ऊर्जा की जाँच वाले हैं, उनकी निष्पक्षता के बारे में क्या धारणा है?

  2. “भारत अपने २२ मे से १४ परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को अंतर्राष्ट्रीय निगरानी मे रखने को तैयार हो गया”
    यानी बाकि बचे 8 में जो चाहो करो. एसे में 14 संयंत्रो कि निगरानी अर्थहीन नही लगती?

  3. चीन के मुक़ाबले भारत को खड़ा करके अमरीका भले ही कुछ भी क्यों न चाहता हो, हाल-फ़िलहाल इससे भारत को कोई नुक़सान नहीं है। भारत तो अमेरिका द्वारा एशिया में क्षेत्रीय-सन्‍तुलन बनाने की इस प्रक्रिया में फ़ायदा ही उठा रहा है।

    मेरे हिसाब से इस बात से घबराने की क़तई कोई ज़रूरत नहीं है, कि अमेरिका अपना काम निकल जाने के बाद क्या करेगा। हाँलाकि अमेरिका का इतिहास बताता है कि उसने काम निकल जाने के बाद उन मुल्‍क़ों से बुरा बर्ताव किया है, लेकिन भारत आर्थिक और सामरिक रूप से उन कमज़ोर देशों से बहुत ज़्यादा सशक्त है। इसलिये तब तक (अगले २०-३० वर्षों में) भारत ख़ुद एक विश्व-शक्ति के रूप में उभर चुका होगा। भविष्य के उन हालात में अमरीका सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत से दोस्ती क़ायम रखने को मजबूर होगा।

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