टाई पुराण

अब क्या हुआ कि सुबह सुबह ज्ञानबाबू ने अपने अतीत की टाई की यादों को छेड़ा तो हमे भी लगा कि चलो हम भी अपने अतीत मे थोड़ा तांक झांक कर लें। अब यहाँ ब्लॉगर लिखने के लिए विषय का रोना रोते है, उधर ज्ञानबाबू है कि आईडियों की झड़ी लगाए है। तो जनाब हम बात कर रहे थे, टाई पुराण की। टाई से हमारा बहुत पुराना नाता है। बचपन मे इलास्टिक वाली टाई गले मे डाल दी जाती थी, जिसका मकसद हमको जेंटिलब्लॉय बनाना नही, बल्कि पकडने का जुगाड़ा हुआ करता था। हम शुरु से ही काफी मटरगश्ती प्रेमी थे, घर वालों को मुझे पकड़ने के लिए रिले रेस करनी पड़ती थी, इसलिए सर्वसम्मति से ये विधेयर पारित किया गया कि इसके गले मे खूंटा (टाई) लगा दो, पकड़ने मे आसानी रहेगी। बचपन मे मुझे अपने बाल संवारना (वैसे तो आज भी) बहुत बुरा लगता था, कंघी से अच्छी खासी चिड़ हुआ करती थी। जब भी माताजी मेरी जबरन कंघी करती, तब मेरे गले मे पहनायी हुई टाई उनके लिए कंट्रोल पैनल का काम करती। अब हम अकेले नही थे, टाई मे बंधे हुए, टिल्लू भी हमारे साथ इस टाई विधेयक मे टाई किया गया था। टिल्लू? अरे टिल्लू को नही जानते, हमारा चचेरा भाई, अक्सर हमारी शरारतों का शिकार होने वाला शख्स। टिल्लू के बारे मे विस्तार से जानने के लिए इधर देखें

तो हम कह रहे थे, पहले पहल तो हमे इलास्टिक वाली टाई पहनायी गयी। जिसको हम टाई कम रुमाल (नाक पोंछने के लिए यार!) की तरह इस्तेमाल करते थे। जुकाम तो हमेशा से ही रहता था, लेकिन हम स्वच्छता का ख्याल रखते हुए, टिल्लू की टाई को ही रुमाल की तरह इस्तेमाल करते थे। क्या सुहाने दिन हुआ करते थे वो। लेकिन कहते है ना, जमाने से आपकी खुशी देखी नही जाती, एक दिन चाचाजी के दिमाग मे फितूर सवार हुआ कि बच्चों को स्वावलम्बी बनना चाहिए, इसलिए घर (हम संयुक्त परिवार मे रहते थे) में फतवा जारी किया गया कि स्कूल की ड्रेस (जिसमे टाई भी शामिल थी) को बच्चे खुद प्रेस किया करेंगे। प्रेस शब्द का हिन्दीकरण, चिट्ठाकार फोरम मे हिन्दी सिखाने वाले ठेकेदार भैया करेंगे, तब तक आप आगे पढिए।

Photo Courtesy : Looking Glass

जब घर मे स्वयं कपड़े प्रेस करने का फतवा जारी हुआ तो हमे बहुत बुरा लगा। लेकिन हम टिल्लू को स्वावलम्बन का लम्बा पाठ पढाते हुए (तकनीकी भाषा मे चने के झाड़ पर चढाना) उसको प्रेस करने के लिए इनकरेज करते थे। टिल्लू और हमने हफ़्ते मे तीन तीन दिन कपड़े प्रेस करने की जिम्मेदारी ले ली जिसमे से मेरी जिम्मेदारी वाले दिन मेरे को बुखार या हाथों मे दर्द जरुर होता था। खैर भाई ही भाई के काम आता है, टिल्लू बेचारा जिम्मेदार बर्दाश्त करता रहता। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन बाद मे ये अरैंजमेन्ट फेल हो गया।हमको पता है, इसके लिए दोषी हम ही थे, लेकिन बदनाम बेचारा टिल्लू हुआ। अब टिल्लू अलग और हम अलग कपड़े प्रेस करने लगे। टिल्लू बेचारा अपना होमवर्क खत्म करके, प्रेस की तरफ बढता। इधर हम टिल्लू को डबल ट्रेप करने लगे, कैसे? टिल्लू इधर होमवर्क निबटाता,उधर हम अनुमलिक की तरह उसके होमवर्क को शब्द दर शब्द, कॉपी करते और टिल्लू के प्रेस का काम निबटाते ही, हम उसके हैंगर से उसकी टाई से अपनी टाई को बदल लेते। अगले दिन सुबह सुबह चाचाजी जब प्रेस का तगादा करते, तब टिल्लू को डांट पड़ती और कभी कभी तो बोहनी (झापड़ के तौर पर) भी हो जाती। ये सब देखकर हम बड़े ही प्रफुल्लित (देखो कित्ता कठिन शब्द लिखा है, पहली बार) होते। थोड़े दिन ही टिल्लू उल्लू बना फिर वो भी ऐसी हरकत करने लगा, खैर….बात टाई की हो रही है, टिल्लू की नही, इसलिए टाई पर ही फोकस किया जाए, नही तो आउट ऑफ सब्जेक्ट हो जाएंगे।

टाई बाँधना हमको नही आता था, इसलिए मोहल्ले के डाक्टर साहब (जो अक्सर वेले(खाली) बैठे रहते थे) की शरण ली गयी। डाक्टर को अपनी बोरियत दूर करनी थी, हमे टाई बांधना सीखना था, इसे कहते है राम मिलायी जोड़ी, एक अं…. (ना ना, गन्दी बात) इस तरह से हमने टाई बांधना सीखा। यूं तो डाक्टर साहब ने टाई बांधना तीन मिनट मे सिखाया था, लेकिन हम तीन दिन तक प्रेक्टिस करते रहे और तीस दिन तक यही सोचते रहे कि कंही टाई गलत तो नही बंधी। फिर क्या था, सड़क से लेकर घर तक, स्कूल से लेकर प्लेग्राउंड तक टाई पहने ही दिखते। नीचे निक्कर पहनी हो या नही (शेम शेम….) लेकिन ऊपर टाई पहननी जरुरी थी। टाई एक ऐसा वस्त्र था, जो हम अपने शरीर से सबसे आखिरी मे उतारते थे।

समय बीता, स्कूल से कॉलेज मे गए, तो लड़कियों को इम्प्रेस करने के लिए टाई पहनने के के नित आइडिए इस्तेमाल करते रहे, कभी कल्लू मामा की तरह, कभी स्टीवन फ्रांसिस (ये कौन? हमे का पता, अंग्रेजी नाम अच्छा लगता है, इसलिए पेल दिया,आप झेलो, हमारा क्या) की तरह, कभी स्काउट की तरह, कभी मफलर की तरह। टाई के नित नए इस्तेमाल और नए नए तरीके हमको सिखाए एक टाई विक्रेता अफजल भाई ने। अफजल मियां परेड ग्राउंड के पास, आईएमए हॉल के बाहर टाई बेचते थे, शायद अब भी उनका बेटा यही काम करता है। अफजल मियां से हमने वस्तु विनिमय सिद्दांत (ज्ञान विनिमय सिद्दांत) के तहत टाई बांधना सीखा। वस्तु/ज्ञान विनिमय? हाँ भाई अफजल मियां को अंग्रेजी के कुछ वाक्य सीखने थे, हमे टाई बांधने के नए तरीके, सो दोनो ने अपना अपना ज्ञान बाँटा। इसके अलावा हम अफजल मियां के बिजिनेस प्रमोशन एसोसिएट (यानि कि उनके लिए टाई खरीदने के लिए नए नए मुर्गे पकड़ के लाना वाला काम यार) भी बन गए। इस तरह से जवानी ने भी खूब टाई पहनी/पहनायी गयी। नौकरी मे जब आए तो पहले पहल सोचा कि टाई को तिलांजली दे दी जाए, लेकिन क्या करें, टाई वालों को ज्यादा अहमियत दिए जाने को हम बर्दाश्त नही कर सके और टाई पहनने वालों के कारवां मे शामिल हो गए, तब से लेकर अब तक टाई हमे और हम टाई को झेल रहे है।

सुबह सुबह नाश्ते की टेबिल तक पहुँचते पहुँचते जब आंखे अखबार मे विज्ञापनों के बीच मे से खबरें ढूंढ रही होती है, मुँह निवाले को पेट की तरह बढाने का प्रयत्न कर रहा होता है, तब हाथ कब अल्मारी को खोलते है, हैंगर से टाई को उठाते है, कब अंगुलियों की हरकत से टाई बंध जाती है, पता ही नही चलता। क्या कहा? आपको टाई बांधना नही आता, अच्छा ज्ञान बाबू की तरह भूल गए हो, अरे यार हम है ना। हम सिखाएंगे वो भी ऑनलाइन, विश्वास ना आए तो ये वाली पोस्ट देखो, पूरा तरीका सिलसिलेवार दिया है, वो भी एक तरीके से नही, पूरे पाँच/छ: तरीके से। बेहिचक टाई बॉंधना सीखो और सिखाओ।

आपको ये पोस्ट कैसी लगी, टिप्पणी में लिखना मत भूलिएगा, आते रहिए पढते रहिए। आपका पसंदीदा ब्लॉग।

10 Responses to “टाई पुराण”

  1. बहुत ही रोचक लगा आपका संस्मरण.
    हमारे गाँव में शायद ही किसी को टाई बाँधनी आती थी. इसलिए शादी-विवाह, त्योहार-समारोह में जिन्हें टाई लगानी होती, उन्हें गांठ लगवाने पास के कस्बे के फ़ोटो स्टूडियो तक जाना पड़ता था. इतनी मेहनत करके जिसने टाई पहनी, उसे ‘कंठलंगोट वाला जेन्टलमैन’ बुला कर बहुतों को ख़ुशी मिलती थी.

  2. अरे यह टाई-कम-टिल्लू-ज्यादा पुराण तो बहुत मस्त निकला। 🙂

    बाकी, हम आपकी पोस्टों पर पर-पोस्ट दो-दो बार कमेण्टियाने का वचन दे सकते हैं; बशर्ते आप हमें एक ठो टाई भेंट में दे सकते हों।

    क्या है कि ब्राह्मण फ्री की चीज के लिये कुछ भी कर गुजरता है! 🙂

  3. बड़े दिनों, (शायद महीनों या बरसों) के बाद मोहल्ला पुराण की अगली कड़ी पढ़ कर मुस्कुरा रहे हैं। बेचारा टिल्लू… अब वह यह सब पढ़ता होगा तो?
    मजेदार पोस्ट।
    🙂

  4. ह्म्म, टाई? टाई तो मैंने बारहवीं क्लास के बाद से नहीं बांधी। स्कूल में भी सर्दियों की यूनिफॉर्म के साथ अनिवार्य थी, सुबह चकाचक जेन्टलमेन माफिक रहती लेकिन मध्यांतर तक संभ्रांत गुण्डे माफिक ढीली होकर लटक रही होती थी स्टाईल से!! बस यह ख्याल रखा जाता कि कहीं खुल न जाए, जो किसी ने खोल दी जबरन तो उसकी शामत आई। क्यों? टाई बांधना अवश्य आता था (पिताजी ने सिखाया था और जो वो सिखाते मैं तुरंत पहली बार में सीखता क्योंकि प्रसाद पाने का तमन्नाई नहीं होता था मैं) लेकिन टाई बांधने में बहुत कोफ़्त होती थी, इसलिए 2 टाई थी जो कि दोनों रविवार के दिन धुलती, प्रैस होती (ये काम मैं पिताजी को सरका देता था, ही ही ही) और फिर बंधती थी (ये काम मेरे जी जिम्मे था) अगले सप्ताह भर के लिए!! 🙂

    स्कूल के बाद कभी ज़रुरत महसूस नहीं हुई, न कॉलेज में और न ही दफ़्तर में!! 🙂

  5. गुड है जी।वेरी गुड है। आ गये मोहल्ले में। प्रेस करने को लोहा करना कहा जाता है हिंदी में। समझ गये। 🙂

  6. बहुत रोचक …टाई बांधना कोई मामूली कला नही है -मैं आज भी दावे से कह सकता हूँ कि ९० फीसदी लोग ठीक से टाई नहीं बाँध पाते !

  7. मंस्त है। लगता है पुरानी टाई खोजकर निकालनी ही पड़ेगी

  8. आणंद आ गया,बहुत बढिया

  9. वाह! क्या बढ़िया ताई पुराण लिखा है. हास्य के प्रयोग ने इसको अति सुंदर और प्रभावी बना दिया है.

  10. बहुत अच्छा लगा ये आलेख और टाई पार्ट २- ३ ज्ञान भाई साहब से चलते हुए टील्लू जी
    और पुरानी पोस्ट सभी रोचक ~~ लिखते रहीये जी 🙂
    – स्नेह,
    – लावण्या